हिंदू धर्म

हिंदू धर्म के अमर पशु पक्षी।Animals in Hindu Religion

सनातन हिंदू धर्म विश्व का एकमात्र ऐसा धर्म है, जिसका विस्तार न केवल मानवों तक है, बल्कि यह चर-अचर जगत के सभी प्राणियों को मुक्ति देने में सक्षम है। शुद्ध सनातन हिंदू धर्म में पशु और पक्षी भी मोक्ष के अधिकारी हैं, और उन्हें भी इस धर्म में आदरणीय स्थान हासिल है। हम आपको बताने जा रहे हैं, उन पशुओं और पक्षियों की कथा जिन्होंने सनातन धर्म की दिशा बदल कर रख दी और खुद भी मुक्त हो गए ।

हिंदू धर्म में गरुड़ की भक्ति का स्थान

सनातन हिंदू धर्म में पक्षियों को भी आदरणीय स्थान हासिल है । पक्षियों में भी गरुड़ को सबसे श्रेष्ठ माना गया है। पक्षीराज गरुड़ को भगवान विष्णु का वाहन माना जाता है । ऋषि कश्यप और उनकी पत्नी विनता के पुत्र गरुड़ की भक्ति ने उन्हें न केवल अमर बनाया बल्कि उन्हें भगवान विष्णु का वाहन बनने का सौभाग्य भी दिया।

महाभारत और कुछ पुराणों की कथाओं के अनुसार गरुड़ का जन्म विनता के गर्भ से हुआ था। विनता और उनकी सौत कद्रू के बीच एक बार लड़ाई हो गई। एक शर्त के मुताबिक विनता को नागों की माता कद्रू की दासी होना पड़ा। विनता सिर्फ एक शर्त पर अपने दासत्व से मुक्त हो सकती थी, यदि उनका पुत्र गरुड़ नागों के लिए अमृत लेकर आए।

गरुड़ का जैसे ही जन्म हुआ वो अमृत लाने के लिए उड़ गए। गरुड़ अमृत लेकर नागों के पास आए, लेकिन नाग उस अमृत का पान नहीं कर सके। आश्चर्य की बात यह भी है कि गरुड़ के पास अमृत कलश होने के बावजूद उन्होंने अमृत का पान नहीं किया और अमरता की अभिलाषा नहीं रखी।

जब गरुड़ अमृत कलश लेकर जा रहे थे तो रास्ते में भगवान विष्णु से उनकी मुलाकात हुई। भगवान विष्णु ने उनकी मातृभक्ति और लोभरहित चरित्र देखकर उनसे वरदान मांगने के लिए कहा। गरुड़ जी ने भगवान विष्णु से उनका वाहन बनाने की प्रार्थना की। भगवान विष्णु ने न केवल उन्हें अपना वाहन बनाया, बल्कि उन्हें अमर होने का वरदान भी दे दिया।

शेषनाग की विष्णु भक्ति

शेषनाग नागों की जाति में सबसे बड़े थे। वो ऋषि कश्यप और उनकी पत्नी कद्रू के ज्येष्ठ पुत्र थे । वो अतुलित बलशाली थे। शेषनाग हमेशा अपने नाग भाइयों के दुष्ट स्वभाव से दुःखित रहते थे। अपने भाइयों से अलग होने के लिए उन्होंने भगवान विष्णु की कठोर तपस्या की। भगवान विष्णु ने उन्हें भी अमरता का वरदान दिया और इसके अलावा से शेषनाग उनकी शय्या भी बने। हिंदू पौराणिक मान्यताओं के अनुसार प्रलय के बाद और सृष्टि के प्रारंभ में भगवान विष्णु के अतिरिक्त सिर्फ शेषनाग और मार्कण्डेय ऋषि का ही अस्तित्व रहता है।

काकभुशुण्डि की महान भक्ति

वैसे तो कौए को एक नीच प्राणी माना जाता है, लेकिन काकभुशुण्डि एक कौए होने के बावजूद भक्त शिरोमणि कहे जाते हैं। श्रीराम के भक्तों में उनका आदरणीय स्थान है। गोस्वामी तुलसीदास जी रचित ‘रामचरितमानस’ और कुछ अन्य ग्रंथों की कथा के अनुसार काकभुशुण्डि जी पूर्वजन्म में एक शूद्र थे और एक ब्राह्मण गुरु की सेवा में थे। उस ब्राह्मण गुरु ने उन्हें भगवान शिव का एक मंत्र दिया। इस मंत्र के द्वारा वह शूद्र भगवान शिव की भक्ति करने लगा। लेकिन वो शिवभक्त होने के बावजूद विष्णु का द्रोही हो गया। एक बार उस शूद्न ने अपने ही ब्राह्मण गुरु का अपमान कर दिया। इससे शिव कुपित हो गए। शिव ने उस शूद्र को सर्प होने का शाप दे दिया।

बाद में भगवान शिव ने ब्राह्मण गुरु की विनती पर उस शूद्र को क्षमा कर दिया और कहा कि “उसे अगले जन्मों में श्रीराम की भक्ति प्राप्त होगी।” अपने अगले जन्म में उस शूद्र ने सर्प के रुप में जन्म लिया और आखिरी जन्म में उस शूद्र ने ब्राह्मण के रुप मे जन्म लिया । इस जन्म में वह राम भक्त तो हो गया, लेकिन उसने ऋषि लोमश का अपमान कर दिया। ऋषि लोमश ने उसे कौआ हो जाने का शाप दे दिया । इसके बाद से वो काकभुशुण्डि के रुप में प्रसिद्ध होकर श्रीराम की भक्ति करने लगे।

गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस के उत्तरकांड में एक कथा आती है कि जब मेघनाद ने श्रीराम को नागपाश में बांध लिया तो गरुड़ जी ने आकर श्रीराम को नागपाश से मुक्त किया। इसके बाद पक्षियों में श्रेष्ठ गरुड़ जी को श्रीराम के विष्णु अवतार होने पर संदेह हो गया। इस संदेह को दूर करने के लिए ब्रह्मा जी ने गरुड़ जी को भगवान शंकर के पास भेजा । भगवान शंकर ने गरुड़ जी को काकभुशुण्डि के पास श्रीराम का चरित्र सुनने के लिए भेज दिया।

हिंदू धर्म में नीच जाति के कहे जाने वाले काकभुशुण्डि ही पक्षियों में श्रेष्ठ गरुड़ जी को श्रीराम की भक्ति का उपदेश देते हैं और संपूर्ण श्री रामचरितमानस की कथा कहते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी के रामचरितमानस के प्रमुख संवादों में काकभुशुण्डि और गरुड़ संवाद है। इसके अलावा भगवान शिव माता पार्वती के संदेह को दूर करने के लिए श्रीराम कथा कहते हैं ।

जटायु गीध की महान श्रीराम भक्ति

लगभग सारी राम कथाओं में गीधराज जटायु को श्रीराम के महान भक्त के रुप में दिखाया गया है। वाल्मीकि रामायण से लेकर रामचरितमानस तक में जटायु को भाग्यवान कह कर उनकी प्रशंसा की गई है। जब रावण माता सीता का अपहरण कर उन्हें लंका ले जा रहा था, तब जटायु ने ही रावण से युद्ध माता सीता को बचाने की कोशिश की थी। युद्ध में रावण को जटायु ने कई बार घायल किया लेकिन आखिरकार रावण ने अपने खड्ग से जटायु के पंख काट डाले और उन्हें मरणासन्न छोड़ दिया ।

श्रीराम ने जटायु की भक्ति और वीरता को प्रणाम करते हुए उनका अंतिम संस्कार कर उन्हें अपने पिता के समान दर्जा दिया। इसीलिए सभी राम कथाओं में जटायु को बड़भागी कह कर उनका सम्मान किया गया है। जटायु के भाई संपाति थे जिन्होंने हनुमान जी को माता सीता का पता बताया था।

हनुमान की श्रीराम भक्ति

महावीर हनुमान जी भी एक वानर हैं। लेकिन उनका वानर योनि में जन्म लेना उनकी श्रीराम भक्ति को और भी महान बना गया। महावीर हनुमान से बड़ा श्रीराम भक्त इस संसार में कोई नहीं हुआ। श्रीराम के कार्य के लिए हनुमान जी ने माता सीता की खोज से लेकर रावण की लंका तक जला दी। श्रीराम वीर हनुमान की भक्ति और प्रेम से इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने हनुमान जी को चिरंजीवी होने का वरदान दे दिया। माता सीता ने तो हनुमान को अमरता का वरदान दे दिया। आज भी संसार में हनुमान की भक्ति को सर्वोत्तम दास भक्ति का उदाहरण माना जाता है।

गिलहरी की श्रीराम भक्ति

एक छोटी सी गिलहरी में भी इतनी चेतना होती है कि वो ईश्वरत्व को समझ सके। सनातन हिंदू धर्म में ही ऐसी कथाओं का होना संभव है। लोककथाओं में एक गिलहरी की श्रीराम भक्ति की अद्भुत कथा आती है। कथा है कि जब वानर लंका जाने के लिए रामसेतु का निर्माण कर रहे थे तो सभी वानर बड़े- बड़े पत्थरों को उठा कर समुद्र में डाल रहे थे।

इस कार्य को एक छोटी सी गिलहरी ने भी देखा। उसने भी यही सोचा कि श्रीराम के इस महान कार्य में वो भी अपना सहयोग करे। अब गिलहरी तो छोटी सी थी, वो पत्थर तो उठा नहीं सकती थी । इसलिए उसने समुद्र में जाकर अपने शरीर को पानी से भिगोया और अपने शरीर पर रेत लगाकर रामसेतु के पत्थरों के बीच डालने लगी।श्रीराम ने इस छोटी गिलहरी को ऐसा कार्य करते देखा तो उससे पूछा कि “तुम ये क्या कर रही हो?”

उस गिलहरी ने जवाब दिया कि “मैं भी इस रामसेतु को निर्माण में अपना योगदान दे रही हूँ। भले ही मेरा् योगदान छोटा हो, लेकिन जब भी इस रामसेतु के निर्माण की चर्चा होगी, उसका भी कोई न कोई योगदान जरुर होगा । मैं जितना कर सकती हूँ कि श्रीराम के लिए जरुर करुँगी ।”

 कहा जाता है कि श्रीराम ने उसके शरीर पर अपनी तीन उंगलियों को फेरा जिससे गिलहरी के शरीर पर तीन सफेद रेखाएं बन गई। इसके बाद से आज भी गिलहरी जाति के शरीर पर जो तीन रेखाएं पाई जाती हैं, वो श्रीराम के उस गिलहरी के प्रति अपने प्रेम का सबूत बन कर रह गई हैं।

कुतिया सरामा की अद्भुत ममता

ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं में इंद्र की एक कुतिया का जिक्र आता है,जिसका नाम सरामा है। कथा है कि एक बार आंगिरस ऋषियों की गायों को आर्यों के शत्रु पणि चुरा कर ले गए । इंद्र के कहने पर सरामा ने ही उन दिव्य गायों को पणियों की गुफा से खोज निकाला।

इंद्र ने सरामा को वरदान दिया कि आने वाली कुत्तों की नस्लें भी गायों का दूध पी सकेंगी। लेकिन सरामा की ममता सिर्फ अपनी कुत्तों की जाति तक सीमित नहीं थी। सरामा ने इंद्र से यह भी वरदान मांगा कि मानव जाति भी गायों का दूध पी सके। इसके बाद ही मानवों ने भी गायों का दूध पीना शुरु किया।

नंदी बैल की शिव भक्ति

नंदी बैल को भगवान शिव का वाहन माना जाता है । भगवान शिव ने नंदी को अमरता का वरदान दिया है। कहा जाता है कि नंदी बैल पूर्व जन्म में शिलाद ऋषि के पुत्र थे, लेकिन उनकी आयु कम थी । नंदी ने भगवान शिव की कठोर तपस्या की और भगवान शिव ने न केवल उन्हें अपना वाहन बनाया, बल्कि उन्हें अमरता का वरदान भी दे दिया ।

नागराज वासुकि

नागराज वासुकि ऋषि कश्यप और माता कद्रू की संतान थे। उनके बड़े भाई का नाम अनंत या शेषनाग था। शेषनाग ने भगवान विष्णु की भक्ति की तो नागराज वासुकि भगवान शिव के परम भक्त थे। भगवान शिव की अद्भुत भक्ति की वजह से ही उन्हें भगवान शिव ने अपने गले में धारण किया। नागराज वासुकि ही समुद्र मंथन के दौरान रस्सी के रुप में देवताओं और असुरों के द्वारा इस्तेमाल में लाए गये थे।

कबूतरों के जोड़े की अमर कथा

सनातन धर्म में न केवल देवता अमर हैं, बल्कि मनुष्यों सहित कुछ प्राणियों को भी अमरता का वरदान मिला है। शेषनाग, गरुड़, नागराज वासुकि के अलावा दो कबूतर भी अमर माने गए हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार जब अमरनाथ की गुफा में भगवान शिव माता पार्वती को अमरता का रहस्य बता रहे थे तो इस कथा को कबूतरों के एक जोडे ने सुन लिया। इस कथा को सुन कर कबूतरों का यह जोड़ा भी अमर हो गया।

शुकदेव मुनि और बक मुनि की भक्ति

शुकदेव मुनि को कृष्ण द्वैपायन व्यास का पुत्र माना जाता है। वो जन्म के साथ ही अत्यंत ज्ञानी थे। उन्होंने ही विश्व को श्रीमद्भागवत की कथा सबसे पहले सुनाई। कहा जाता है कि शुकदेव मुनि का मुख एक तोते अर्थात शुक के जैसा था, इसीलिए उनका नाम शुकदेव रखा गया था।

महाभारत में बक मुनि की भी कथा आती है। बक मुनि चिरंजीवी थे। अपनी भक्ति और तपस्या से उन्होंने दीर्घ जीवन प्राप्त किया था ।बक मुनि इंद्र के सखा भी थे। बक मुनि ने महाभारत के ‘वन पर्व’ में चिरंजीवी होने के दुखों का वर्णन किया है। बक का अर्थ बगुला होता है। ये हो सकता है कि वो मानव ही रहे होंगे और उनका मुख बगुले से मिलता होगा।

सनातन धर्म में मनुष्यों के अलावा भी अन्य प्राणियों के द्वारा तपस्या और भक्ति के द्वारा ज्ञान और मोक्ष प्राप्त करने की असंख्य कथाएं हैं। इसीलिए सनातन धर्म अन्य धर्मों से विशिष्ट स्थान रखता है ।

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