शुद्ध सनातन धर्म में किसी तिथि विशेष में घटी घटनाओं को बहुत महत्व प्रदान किया गया है । हजारों वर्षों से उस विशेष तिथि में हुई घटना को पर्व या त्यौहार के रुप में मनाने की प्रथा रही है । अनंत चतुर्दशी भी एक ऐसा ही महापर्व है जो भाद्रपद शुक्लपक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाया जाता है ।
शुद्ध सनातन धर्म के ग्रंथों अनंत चतुर्दशी का पर्व
अनंत चतुर्दशी पर्व का जिक्र महाभारत, श्रीमद् भागवत पुराण, ब्रम्हवैवर्त पुराण, हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण आदि में विशेष रुप से आया है। भगवान विष्णु के अनंत रुपों को यह पर्व समर्पित है। विशेष कर बिहार और उत्तर प्रदेश में भगवान विष्णु के अनंत रुपों के प्राकट्य के उपलक्ष्य में इसे मनाया जाता है ।
दक्षिण भारत में ओणम पर्व का अंतिम दिन भी यही होता है। इसी दिन महाबलि वापस अपने राज्य केरल से पाताल को लौट जाते हैं। महाराष्ट्र में अनंत चतुर्दशी की तिथि के दिन ही भगवान श्रीगणेश जी की प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है । भगवान गणेण की पूजा भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी से लेकर चतुर्दशी तक की जाती है ।
समुद्र मंथन से जुड़ी है अनंत भगवान की कथा

समुद्र मंथन की कथा को लगभग सभी महाकाव्यों और पुराणों में वर्णित किया गया है । पौराणिक ग्रंथों के मुताबिक पहली बार भगवान विष्णु समुद्र मंथन के दौरान एक साथ कई अवतार ग्रहण करते हैं। इससे पहले भगवान विष्णु के सिर्फ एक अवतार मत्स्य अवतार का वर्णन है जब उन्होंने पृथ्वी को रसातल से उबारने के लिए एक मत्स्य का अवतार लिया था ।लेकिन समुद्र मंथन के दौरान भगवान विष्णु की इस शक्ति का पहली बार पता चलता है कि वो एक ही साथ कई रुपों में प्रगट हो सकते हैं । समुद्र मंथन के दौरान भगवान विष्णु कच्छप अवतार लेते हैं और मंदार पर्वत को अपनी पीठ पर धारण करते हैं ।
भगवान विष्णु के अवतार
शेषनाग जो स्वयं भगवान विष्णु के ही अवतार हैं समुद्र मंथन में अपना योगदान देते हैं। भगवान विष्णु धन्वंतरी के रुप में भी प्रगट होते हैं और अमृत कलश को देवताओं और असुरों के बीच रखते हैं। जब देवता और असुरों में अमृत के लिए लड़ाई छिड़ जाती है तब वो मोहिनी का भी अवतार लेते हैं ।
इसी घटना से यह पता लगता है कि भगवान विष्णु के एक नहीं बल्कि अनंत रुप हो सकते हैं। इसी लिए उनका एक नाम अनंत भी पड़ा और उनके इसी अनंत स्वरुप की पूजा के लिए अनंत चतुर्दशी पर्व मनाया जाने लगा ।
अनंत चतुर्दशी में चौदह का अंक
प्रथम तो यह कि अनंत चतुर्दशी का पर्व भाद्रपद शुक्ल पक्ष के चौदहवीं तिथि को मनाया जाता है । दूसरे इस पर्व से समुद्र मंथन का महान कार्य जुड़ा है जिसमें चौदह रत्न निकले थे। चौदहवां रत्न अमृत था । इसी वजह से चौदह का अंक शुद्ध सनातन धर्म में बहुत शुभ माना जाने लगा ।
कैसे मनाएं अनंत चतुर्दशी
अनंत चतुर्दशी की तिथि के दिन चौदह धागों वाले अनंत की पूजा की जाती है । चौदह प्रकार के फलों को भगवान को समर्पित किया जाता है । चौदह पूरियां बनाई जाती है । पंचामृत को एक कलश में रख कर उसकी कल्पना क्षीर सागर के रुप में की जाती है और अनंत को एक पपीते में बांध कर उसे पंचामृत से भरे कलश मे हिलाया जाता है और यह कल्पना की जाती है कि हम समुद्र मंथन का कार्य कर रहे हैं जिससे हमें भी देवताओं की तरह चौदह रत्नों की प्राप्ति हो जिसमें अमृत भी शामिल हो ।इसके बाद चौदह ग्रंथियों वाले इस अनंत सूत्र को अपने बाहों में बांधा जाता है । पुरुष अनंत को अपने दाहिनी बांह में बांधते हैं जबकि स्त्रियां इसे अपनी बाईं बांह में बांधती हैं।
- एक ब्राह्म्ण सुमंत और उसकी पत्नी दीक्षा की एक सुंदर कन्या थी जिसका नाम सुशीला था। जब ब्राह्म्ण सुमंत की पत्नी दीक्षा का निधन हो जाता है तो सुमंत दूसरा विवाह कर लेता है। सुशीला की सौतेली मां उसे लगातार कष्ट देती रहती है। बाद में सुशीला का विवाह कौंडिन्य नामक एक मुनि से हो जाता है लेकिन फिर भी उसकी दरिद्रता खत्म नहीं होती है।
- एक बार सुशीला के पति कौंडिन्य जब स्नान करने के लिए एक स्थान पर रुके तो सुशीला ने कई औरतों को एक पूजा करते देखा। जब सुशीला ने उन स्त्रियों से पूछा कि वो किसकी पूजा कर रही हैं तब उसे पता चला कि वो सभी अनंत प्रभु की पूजा कर रही है। सुशीला ने भी उन स्त्रियों के कहने पर भगवान अनंत की पूजा की और अनंत के धागे को अपनी बांयी बांह मे बांध लिया। इसके बाद सुशीला के घर संपत्ति और सुख लगातार बढ़ने लगे।
- इन बातों से अनजान कौंडिन्य मुनि ने एक बार सुशीला की बांह मे बंधे अनंत को देखा तो उसका रहस्य पूछा। सुशीला ने जब व्रत की बात बताई और कहा कि इसके बाद से ही उनके घर में सुख और संपत्ति आई है। इस बात पर कौंडिन्य नाराज़ हो गए क्योंकि उन्हें अपनी विद्वता और ज्ञान पर घमंड था। उन्होंने सुशीला को कहा कि यह सुख अनंत की वजह से नहीं बल्कि उनके ज्ञान की वजह से हुआ है। ऋषि कौंडिन्य ने सुशीला के हाथ मे बंधे इस अनंत धागे को तोड़ कर आग में जला दिया। इसके बाद सुशीला और कौंडिन्य के उपर लगातार दुख आने लगे और वो फिर से दरिद्र हो गए।
ऋषि कौंडन्य का पश्चाताप
धीरे धीरे ऋषि कौंडिन्य को यह अहसास हुआ कि उन्होंने अनंत का अपमान कर बहुत बड़ी भूल कर दी है । ऐसे में वो पश्चाताप करने और भगवान अनंत की प्राप्ति के लिए तपस्या करने जंगल जाने लगे ।
रास्ते में उन्हें एक आम का पेड़ दिखा जिस पर कीडे लगे हुए थे और उसके फल को कोई भी खा नहीं सकता था ।इसके बाद उन्हें रास्ते में एक गाय और बैल दिखे जो एक हरी घास के मैदान में खड़े थे लेकिन वो उस घास को खा नहीं पा रहे थे । इसके आगे जाने पर उन्हें दो नदियां दिखी जो एक दूसरे से मिली हुई थीं और उनका पानी कोई पी नहीं रहा था । अंत में रास्ते में उन्हें एक गधा और हाथी दिखाई दिया । कौंडिन्य को इन सब घटनाओं का कोई अर्थ समझ में नहीं आया ।
भगवान अनंत का प्रसन्न होना :
ऋषि कौंडिन्य भगवान अनंत को तलाश करते करते थक गए और अंत में उन्होंने तय किया कि अगर भगवान अनंत ने दर्शन नहीं दिया तो वो आत्महत्या कर लेंगे । जैसे ही वो फांसी लगाने वाले थे भगवान अनंत प्रगट हो गए और उन्होंने कौंडिन्य को दर्शन दिया और कौंडिन्य को सुख और संपत्ति का वरदान दिया ।
स्वार्थ के त्याग का पर्व अनंत चतुर्दशी :
जब ऋषि कौंडिन्य ने आम के पेड़, गाय , बैल, नदी , गधे और हाथी के रहस्य के बारे में भगवान अनंत से पूछा तो उन्होंने इसका रहस्य खोलते हुए कहा कि जो स्वार्थ का त्याग करना जानता है और दूसरे के हितों के लिए अपने जीवन को जीता है वही भगवान अनंत को प्राप्त कर सकता है ।
भगवान अनंत बताते हैं कि वो आम का फल पिछले जन्म में एक ज्ञानी ब्राह्म्ण था लेकिन उसने अपने ज्ञान को किसी और में नहीं बांटा इसलिए वो इस जन्म में आम का पेड़ बना जिसके फलों को कोई और चख नहीं सकता था । अर्थात अगर आप अपने ज्ञान को दूसरों में नहीं बांटते हैं तो आप उसी फल की तरह हो जाते हैं जिसमे फल तो हैं लेकिन इतने कीड़े लगे हुए हैं कि उसे कोई खा नहीं सकता और वो समाज के किसी काम नहीं आ सकता है ।
गाय और बैल का रहस्य :
भगवान अनंत बताते हैं कि वो गाय पृथ्वी का प्रतीक है । जब पृथ्वी बनी थी तो उसने प्रारंभ में सारे बीजों को स्वयं ही खा लिया था । अर्थात पृथ्वी का जो कार्य है कि वो बीजों से पेड़ उत्पन्न करे वो कार्य उसने नहीं किया । इसलिए वो उन हरी घासों को नहीं खा सकती थी । बैल स्वयं धर्म का प्रतीक है । जो धर्म किसी के कल्याण मे नही आ सकता उसका होना या न होना कोई मायने नहीं रखता है ।
दो नदियों का रहस्य :
भगवान अनंत कहते हैं कि ये दो नदियां एक दूसरे का ही पानी पीती है । दरअसल ये पूर्व जन्म में दो बहिनें थी और ये खुद एक दूसरे से ही प्रेम करती थीं । इन्होंने अपना प्रेम समाज और संसार के कल्याण के लिए नहीं लगाया था। इसलिए ये दोनों नदी बनकर एक दूसरे का ही पानी पी रही हैं ।
गधे और हाथी का रहस्य :
भगवान अनंत कहते हैं गधा क्रोध का प्रतीक है और हाथी स्वंय कौंडिन्य के व्यक्तत्व का प्रतीक है । क्रोध रुपी गधे को त्याग कर ही कौंडिन्य हाथी की तरह शांत बन सकते हैं। भगवान अनंत के द्वारा इन रहस्यों के उद्घाटन से कौंडिन्य समझ जाते हैं कि उनके ज्ञानी होने का असली फल तब ही मिलेगा जब वो अपने ज्ञान को संसार से साझा करेंगे ।
अनंत चतुर्दशी का महत्व :
महाभारत में युधिष्ठिर के द्वारा राज्य प्राप्ति के लिए अनंत चतुर्दशी का व्रत किया गया था । इसी प्रकार यह कथा भी है कि राजा हरिश्चंद्र ने भी अनंत चतुर्दशी का व्रत कर अपने राज्य को दोबारा प्राप्त किया था ।