आज पूरे विश्व में इस्कॉन और अन्य कृष्ण भक्ति से जुड़ी संस्थाओं के प्रयासों से कृष्ण भक्ति की जो गंगा अविरल प्रवाहित हो रही है उसकी गंगोत्री हिमालय में नहीं बल्कि दक्षिण भारत में हैं। आदिगुरु शंकराचार्य ने जब निराकार ब्रम्ह की अवधारणा दी और देश को कर्मकांड और जाति प्रथा से मुक्त कराने का अभियान किया
तो उनके इस महान उद्देश्य को आगे ले जाने का कार्य महान संत रामानुजाचार्य जी ने किया । महान संत रामानुजाचार्य के बाद इस कार्य को आगे बढ़ाया वायु अवतार द्वैतवाद के प्रवर्तक श्री माधवाचार्य जी ने। शंकराचार्य के निर्गुण ब्रम्ह के दार्शनिक सिद्धांतों पर पहली प्रतिक्रिया यूं तो रामानुजाचार्य जी ने विशिष्टाद्वैत सिद्धांत से दी जिसके मुताबिक ब्रम्ह और जीव एक हो कर भी एक दूसरे से विशिष्ट और अलग हैं। लेकिन माधवाचार्य जी ने द्वैतवाद के सिद्धांत के द्वारा यही सिद्ध किया कि ब्रम्ह और जीव दोनो एक दूसरे से पूर्णत: अलग अलग हैं। ईश्वर सृष्टि का निर्माता है और जीव का उद्देश्य उसकी भक्ति कर मोक्ष प्राप्त करना है। इसी द्वैतवाद के सिद्धांत ने स्पष्ट रुप से सगुण परंपरा की शुरुआत की। सगुण परंपरा के मुताबिक ईश्वर के साकार या मूर्ति रुप की अराधना की जाती है और अलग अलग भक्ति के प्रयासो से ईश्वर की अनुकंपा प्राप्त की जाती है।
माधवाचार्य ने ईश्वर के रुप में भगवान श्री कृष्ण की पूजा को महत्व दिया । उनके मुताबिक भगवान श्री कृष्ण ही परंब्रम्ह हैं। कर्नाटक के उड़ुपी में 1237 ई में अवतरित हुए वायु के तृतीय अवतार माधवाचार्य जी ने कृष्ण भक्ति को सभी जाति और धर्मों के लिए सुलभ बताया। यज्ञों में पशु बलि देने की प्रथा का विरोध करने और उसके अंत के लिए कार्य करने का श्रेय श्री माध्वाचार्य जी को ही जाता है। उनके द्वारा स्थापित किए गए संप्रदाय से ही बाद में चैतन्य महाप्रभु जैसे महान संत निकले जिन्होंने संकीर्तन को आधार बनाया और गौड़िय संप्रदाय की स्थापना की। इसी गौड़िय संप्रदाय से इस्कॉन निकला है जिसे आधुनिक विश्व में हरे कृष्णा हरे रामा के संकीर्तन को प्रसिद्ध करने का श्रेय दिया जाता है।.