भारत में सनातन धर्म जब कर्मकांडों के जाल और जातिवाद के जहर से आपस में बंट रहा था तब रामानुजाचार्य ने जातिवाद के जहर से मुक्त कराने के लिए अद्वैत का सिद्धांत दिया था। इस सिद्धांत के मुताबिक सभी मानव चाहे किसी भी धर्म और जाति के हों ईश्वर के ही अंश हैं और इस माया रुपी झूठे संसार में भटक रहे हैं। शंकर के इस सिद्धांत ने ही देश में निचली जातियों के अंदर एक समानता का भाव भरा और निर्गुण पंरपरा का विकास शुरु हुआ।
लेकिन शंकर के सिद्धांतों की प्रतिक्रिया के फलस्वरुप एक और महान संत का आविर्भाव हुआ जिनका नाम था रामानुजाचार्य। रामानुज ने शुष्क और भावना रहित निर्गुण परंपरा का विरोध कर एक ऐसी नई भक्ति परंपरा का उद्धोष किया जिनसे कबीर,नानक, तुलसी, रैदास ,मीरा जैसे भक्त निकले और उन्होंने निर्गुण और सगुण भक्ति आंदोलन को उत्तर भारत में जन जन में फैला दिया। रामानुज का कहना था कि चूंकि ईश्वर ने ही इस संसार को बनाया है। तो ईश्वर का बनाया संसार झूठा या मिथ्या नहीं हो सकता। ब्रम्ह और उसकी सृष्टि एक हो कर भी उनके बीच विभेद हो सकता है। और जीव ईश्वर में वापस तभी मिल सकता है जब उसे या तो ईश्वर की अनुकंपा प्राप्त हो जाए( जैसा गीता में कहा गया है) या फिर वो अपने भक्ति कर्म के द्वारा ईश्वर में मिल जाए।
1017 ई में दक्षिण भारत में जन्में रामानुजाचार्य के इस विचार को ही विशिष्टाद्वैत कहा जाता है। इस सिद्धांत में भक्ति के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग बताया गया है। ये भक्ति सभी जीवों चाहे वो किसी भी धर्म या जाति के हों ,सहज रुप से प्राप्त है। भक्ति के इस सिद्धांत को लेकर रामानंद उत्तर आए और उनके ही शिष्य कबीर, तुलसी, रैदास, मीरा आदि निकले। इस परंपरा में निर्गुण अर्थात निराकार ईश्वर की अराधना और सगुण अर्थात ईश्वर के मूर्ति रुप की भी भक्ति शामिल थी। रामानुजाचार्य के इस आंदोलन को मुस्लिम संप्रदाय के लोगों ने भी अपनाया और दलित हिंदुओं ने भी सहज स्वीकार किया। आज जो भी भक्ति का स्वरुप है वो रामानुजाचार्य के ही सिद्धांत विशिष्टाद्वैत की देन है।