श्रीकृष्ण को महाभारत का नायक माना जाता है । महाभारत के पात्रों, उसके रचयिता व्यास और बाद के ऋषियों, मुनियों और विद्वानों ने भी श्रीकृष्ण को ही महाभारत के युद्ध का नायक और सूत्रधार बताया है। इसके बावजूद महाभारत में ही एक ऐसी तपस्विनी महिला थीं, जिन्होंने श्रीकृष्ण को महाभारत के युद्ध का खलनायक और ‘युद्ध अपराधी’ बताया था। उस तपस्विनी महिला का नाम गांधारी था।
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गांधारी कौन थीं ?
गांधारी हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र की पत्नी और दुर्योधन की माता थीं। गांधारी के बारे में कहा जाता है कि वो भगवान शिव की महान उपासिका थीं और उन्होने भगवान शिव को अपनी तपस्या से प्रसन्न किया था। गांधारी महाभारत की उन महान पात्रों में एक हैं, जिनकी दृष्टि हमेशा धर्म पर आधारित थी।
एक ओर जहां धृतराष्ट्र अपने पुत्र दुर्योधन के मोह में अँधे थे वहीँ अपनी आँखों पर पट्टी बाँधने वाली गांधारी अपने पुत्र दुर्योधन को अधर्मी मानती थी और कभी भी उसके कुकृत्यों का समर्थन नहीं करती थीँ। महाभारत में स्त्रीपर्व (Chapter of Women) में कथा है कि जब महाभारत के युद्ध के पूर्व दुर्योधन अपनी माता गांधारी से विजय का आशीर्वाद लेने के लिए आय़ा था तो उस वक्त भी गांधारी ने उससे यही कहा था कि “तुम अधर्म के साथ खड़े हो, इसलिए मैं तुम्हें विजय का आशीर्वाद नहीं दे सकती क्योंकि मैं मानती हूँ कि ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ अर्थात् जहाँ धर्म है वहीं विजय है।“
गांधारी वर्तमान अफगानिस्तान के कंधार क्षेत्र की रहने वाली थीं। उनके पिता गांधार ( वर्तमान कंधार) के राजा थे। भीष्म ने गांधार नरेश से उनकी पुत्री गांधारी का हाथ अपने भतीजे धृतराष्ट्र के लिए मांगा था । चूँकि धृतराष्ट्र जन्म से अँधे थे ,इसलिए गांधारी ने भी पूरे जीवन के लिए अपने आँखो पर पट्टी बांध ली।
गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से हुआ और दोनों के सौ पुत्र और एक पुत्री हुई । गांधारी के सबसे बड़े पुत्र का नाम दुर्योधन था और उनकी इकलौती पुत्री का नाम दुःशला था। गांधारी को ये सौ पुत्र भगवान शिव की कृपा से ही प्राप्त हुए थे।
गांधारी और श्रीकृष्ण के बीच संबंध
वैसे तो कुंती श्रीकृष्ण की बुआ लगती थीं, लेकिन गांधारी को भी श्रीकृष्ण अपनी बुआ की तरह ही सम्मान देते थे। गांधारी भी श्रीकृष्ण को ईश्वर का अवतार ही मानती थी। जब श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र से संभावित युद्ध को टालने के लिए पांडवों को पाँच गांव देकर संधि करने के लिए कहा, तो उस वक्त भी गांधारी ने भी श्रीकृष्ण का समर्थन किया था।
गांधारी ने अपने पुत्र दुर्योधन को हमेशा धर्म के मार्ग पर चलने के लिए कहा और श्रीकृष्ण के इस शांति प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए भी कहा था। दुर्योधन ने उस वक्त भी गांधारी की बात नहीं मानी थी और अपने मामा शकुनि की बात मान कर पांडवों को पाँच गांव देने से इंकार कर दिया था।
गांधारी से क्यों डरते थे पांडव ?
महाभारत के स्त्रीपर्व(Chapter of Women) में महाभारत युद्ध के बाद रणक्षेत्र में फैले शवों और उसके पास विलाप करने वाली स्त्रियों का कारुणिक वर्णन है। कथा है कि जब महाभारत के युद्ध के बाद पांडव विजयी होते हैं तो उन्हें गांधारी के शाप का भय सताने लगता है।
महाभारत के युद्ध में गांधारी और धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों का वध हो जाता है । गांधारी के सारे पुत्रों का वध भीम ही करते हैं। युधिष्ठिर जानते थे कि गांधारी अपने पुत्र शोक की वजह से बहुत क्रोध में होंगी । चूंकि गांधारी एक महान तपस्विनी महिला भी थीं, इसलिए य़ुधिष्ठिर को ये अहसास हो गया था कि गांधारी पांडवों को शाप देकर भष्म भी कर सकती हैं।
इसलिए युधिष्ठिर धृतराष्ट्र और गांधारी के पुत्र शोक और उससे उपजे क्रोध को शांत करने के लिए श्रीकृष्ण को हस्तिनापुर भेजते हैं। श्रीकृष्ण धृतराष्ट्र और गांधारी को समझाने की कोशिश करते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि आपके पुत्र दुर्योधन की वजह से ही ये महाभारत का युद्ध हुआ जिसमें इतना बड़ा नरसंहार हुआ है ।
गांधारी श्रीकृष्ण की बात पर मौन रह जाती हैं, लेकिन उनके अंदर क्रोध की ज्वाला धधकती रहती है। धृतराष्ट्र भी अपना क्रोध खत्म नहीं कर पाते हैं। जहाँ धृतराष्ट्र अपने पुत्रों की मौत का बदला भीम से लेना चाहते थे वहीं गांधारी अपने पुत्रों की मौत को तो अधर्म मानती थीं लेकिन इस युद्ध को न रोक सकने के लिए श्रीकृष्ण को जिम्मेवार मानती थीँ।
धृतराष्ट्र द्वारा भीम की हत्या का प्रयास और गांधारी का शाप
जब पांडव अँधे धृतराष्ट्र से मिलने के लिए आते हैं तो धृतराष्ठ्र भीम को गले लगाने के लिए बुलाते हैं। श्रीकृष्ण समझ जाते हैं कि धृतराष्ट्र भीम को मार सकते हैं। श्रीकृष्ण तुरंत एक लोहे की प्रतिमा को अँधे धृतराष्ट्र के आगे कर देते हैं । धृतराष्ट्र उस लोहे की प्रतिमा को भीम समझ कर उसे गले लगा लेते हैं और उसे अपनी शक्ति से चूर-चूर कर देते हैं। बाद में धृतराष्ट्र इस बात को लेकर शोक से भर जाते हैं कि उन्होंने भीम का वध कर दिया।
लेकिन श्रीकृष्ण फिर उन्हें समझाते हैं कि उन्होंने भीम को नहीं बल्कि एक लोहे की प्रतिमा को नष्ट किया है। धृतराष्ट्र लज्जित हो जाते हैं और पांडवों से क्षमा मांगते हैं । धृतराष्ट्र का पांडवों के प्रति क्रोध खत्म हो जाता है । लेकिन गांधारी का क्रोध पांडवो के प्रति खत्म नहीं होता।
जब भीम गांधारी के समक्ष जाते हैं तो गांधारी उनसे पूछती है कि “आखिर तुमने दुर्योधन को छल से क्यों मारा? तुमने दुर्योधन के साथ युद्ध में ये अधर्म क्यों किया?” भीम कहते हैं कि दुर्योधन बहुत बड़ा वीर था और मुझे अपने प्राणों की रक्षा के लिए दुर्योधन को छल से मारना पड़ा। भीम ये भी कहते हैं कि “दुर्योधन ने भी तो द्रौपदी के साथ अधर्म किया था और उसका चीरहरण करने का प्रयास किया था। पांडवों के साथ हमेशा दुर्योधन ने छल किया और मारने की कोशिश की इसलिए मैंने भी उसे छल से मार डाला।
इसके बाद गांधारी भीम से कहती है कि” तुमने दुःशासन को मारा तो इसका दुःख मुझे नहीं है, लेकिन तुमने उसका रक्त क्यों पिया? तुमने ऐसा घृणात्मक कार्य क्यों किया?” भीम कहते हैं कि मैंने दुःशासन का रक्त नहीं पिया था। मैं किसी का भी रक्त पीना पाप मानता हूं। मैने यह प्रतिज्ञा जरुर की थी कि मैं दुःशासन का रक्त पीयूंगा, लेकिन मैंने उसके रक्त को अपने दांतों और होठों से अंदर जाने नहीं दिया था।“
गांधारी भीम से फिर प्रश्न करती हैं कि” तुमने मेरे सभी सौ पुत्रों को क्यों मार डाला ? कम से कम एक पुत्र को तो जीवित छोड़ देते । अब हमारा कोई सहारा नहीं रह गया। “ भीम इस प्रश्न का जवाब नहीं दे पाते । इसके बाद गांधारी भी भीम से कोई सवाल नहीं करती हैं।
गांधारी के पास युधिष्ठिर भी जाते हैं। गांधारी की आँखो पर पट्टी बंधी थी। लेकिन गांधारी ने अपनी पट्टी के किनारों से युधिष्ठिर के पैरों को देखा और गांधारी की तपस्या की शक्ति से युधिष्ठिर के पैरों के नाखून काले पड़ गए। यह देखकर अर्जुन डर गए और श्रीकृष्ण के पीछे छिप गए ।
युद्धक्षेत्र में गांधारी का विलाप
यूं तो गांधारी ने अपने आँखों पर पट्टी बांध रखी थी लेकिन व्यास ने उन्हें युद्धक्षेत्र में मरने वालों के शवों को देखने की दिव्यदृष्टि दी थी। गांधारी श्रीकृष्ण के साथ युद्धक्षेत्र में जाती हैं और वहाँ बिखरी लाशों को देखती हैं। गांधारी के साथ उन वीरों की माताएँ, पत्नियाँ, पुत्रियाँ भी जाती हैं, जिनकी मौत कुरुक्षेत्र के युद्ध में हुई थीँ। युद्धक्षेत्र में करोड़ों लाशें बिखरी हुई थीँ।
इन लाशों को गीध, कौवे, सियार, गीदड़ नोंच-नोंच कर खा रहे थे। गांधारी ये दृश्य देखकर विचलित हो जाती हैं। गांधारी अपने पुत्र दुर्योधन का शव देखती हैं । अपने पुत्र दुःशासन, विकर्ण, विवंशती, चित्रसेन आदि के शवों को देखती हैं। इन शवों के आस-पास गीध और सियार मंडरा रहे थे। इन शवो में किसी के हाथ कटे हुए थे, किसी के पैर कटे हुए थे तो किसी का मस्तक कटा हुआ था। इन शवों को इन स्थितियों में देख कर गांधारी के साथ आई स्त्रियाँ विलाप करने लगती हैं।
गांधारी श्रीकृष्ण को ये सारा कारुणिक और वीभत्स दृश्य दिखाती हैं। गांधारी श्रीकृष्ण को इन स्त्रियों के विलाप को देखने के लिए कहती हैं। गांधारी अपने पुत्रों की लाशों को देखकर भाव विह्वल हो जाती हैं। गांधारी अपनी पुत्रवधुओं के विलापों को देख कर करुणा और क्रोध से भर जाती हैं।
गांधारी श्रीकृष्ण से कहती हैं कि” मेरे पुत्र अधर्मी थे इसलिए युद्ध में मारे गए। मुझे इनकी मौत का दुःख नहीं है। मुझे दुःख हो रहा है अपनी पुत्रवधुओं की हालत को देखकर । मुझे दुख हो रहा है उन माताओं, पत्नियों और पुत्रियों के शोक को देखकर जिनके आत्मीयजन इस युद्ध में मारे गए और अब इनका कोई सहारा नहीं रहा।“
गाँधारी कहती हैं कि “देखो कृष्ण दुर्योधन की पत्नी को ! इसका सिर्फ पति ही नहीं मारा गया बल्कि इसका पुत्र लक्ष्मण भी युद्ध में मारा गया है। ये तय नहीं कर पा रही है कि वो किसके लिए ज्यादा शोक करे? अपने पुत्र की लाश को अपनी गोद में रखे या अपने पति की लाश को अपनी गोद में रखे।“
गाँधारी सिर्फ अपनी पुत्रवधुओं के शोक से ही व्याकुल नहीं थी। उनका दिल बहुत विशाल था। वो उन सभी परिचित और अपरिचित स्त्रियों के दुःख से व्याकुल हो उठती हैं, जिनके आत्मीयजनों का वध इस युद्ध में हुआ था। गांधारी श्रीकृष्ण से कहती हैं कि” देखो द्रोणाचार्य की पत्नी कृपि को ! जिसके पति द्रोणाचार्य की लाश को गीध नोंच रहे हैं। कृपि बार- बार इन गीधों को अपने पति द्रोण के शव से हटाने की कोशिश कर रही है। कृपी की चेतना लुप्त हो गई है। “
गाँधारी श्रीकृष्ण को अपनी पुत्री दुःशला के विलाप को दिखाती है, जिसके पति जयद्रथ का वध अर्जुन ने किया था। गांधारी कहती है कि “मेरी पुत्री अभी बालिका ही थी, लेकिन वो विधवा हो गई और मैं अभी तक इसके सामने जीवित हूँ। मैंने पूर्वजन्म में कोई कौन सा ऐसा अपराध किया था जिसकी वजह से मुझे अपनी विधवा पुत्री के विलाप को देखना पड़ रहा है?”
गांधारी सिर्फ कौरव पक्ष के लोगों की स्त्रियों के विलाप से ही दुखित नहीं थी। वो श्रीकृष्ण को अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के विलाप को दिखाती हैं। अभिमन्यु अर्जुन का पुत्र और श्रीकृष्ण का भांजा था। गांधारी कहती हैं कि” हे श्रीकृष्ण! ऐसा कहा जाता था कि अभिमन्यु अर्जुन से भी ज्यादा बड़ा वीर था और आपसे भी वीरता में बढ़ा चढ़ा था । लेकिन इसका भी वध क्रूरतापूर्वक किया गया। इसकी पत्नी उत्तरा को देखिए । अभिमन्यु और उत्तरा का विवाह छह महीने पहले ही हुआ था और ये बालिका इतनी कम उम्र में ही विधवा हो गई। “
गाँधारी का श्रीकृष्ण को शाप देना
गांधारी इस विनाश को देखकर क्रोध में भर जाती हैं और श्रीकृष्ण के उपर इस युद्ध का सारा दोष मढ़ देती हैं। गांधारी कहती हैं कि हे कृष्ण! तुम तो सबल थे, तुम तो ज्ञानी हो, तुम चाहते तो इस युद्ध को रोक सकते थे। लेकिन तुमने जानबूझ कर इस युद्ध को रोकने की कोशिश नहीं की और समस्त कुरुवंश का विनाश होने दिया। इस युद्ध का सारा दोष तुम पर ही है।
गाँधारी श्रीकृष्ण को शाप देते हुए कहती हैं कि आज से छत्तीसवें वर्ष में तुम्हारे सारे वृष्णी कुल के वीर आपस में लड़ मरेंगे। तुम्हारे वँश की स्त्रियाँ भी इसी प्रकार युद्धक्षेत्र में विलाप करेंगी। तुम भी किसी अपरिचित स्थान पर वन में ओझल होकर भटकोगे और तुम्हारी मृत्यु भी निंदित प्रकार से ही होगी।
श्रीकृष्ण गांधारी के शाप को स्वीकार करते हैं
जब गांधारी श्रीकृष्ण को शाप देती हैं तो श्रीकृष्ण विनम्रता इसे स्वीकार कर लेते हैं और कहते हैं कि मुझे मालूम है कि मेरे यादव वीर किसी दूसरे के द्वारा अवध्य हैं। ये आपस में ही लड़ कर मर सकते हैं। इसलिए मैं आपके इस शाप को भी स्वीकार करता हूँ। लेकिन आप इस युद्ध का सारा दोष मुझ पर मढ़ नहीं सकती क्योंकि दुर्योधन आपका ही पुत्र था और आपने उसे अधर्म के रास्ते पर चलने से कभी नहीं रोका । आप भी इस युद्ध की इतनी ही दोषी हैं।
गांधारी श्रीकृष्ण को ईश्वर मानती थीं। श्रीकृष्ण भी जानते थे कि गांधारी ने ये शाप क्रोधवश नहीं बल्कि शोकवश दिया है। श्रीकृष्ण जानते थे कि गांधारी उन स्त्रियों के शोक को देखकर विचलित हो गई हैं इसलिए वो उन्हें शाप दे रही हैं। श्रीकृष्ण गांधारी के दुःख में उनके साथ खड़े थे इसलिए उन्होंने इस शाप को भी विनम्रता से स्वीकार कर लिया।
शाप और वरदान की शक्ति किसमें होती हैं?
सनातन धर्म में शाप और वरदान दो ऐसी अवधारणा है जो संसार के किसी भी अन्य धर्मों में नहीं पाई जाती है। शाप और वरदान दो ऐसी अद्भुत शक्तियाँ हैं जो सभी प्राणियों के द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं। ईश्वर और देवताओं के पास ये दोनों शक्तियाँ स्वाभाविक रुप से पाई जाती हैं तो मनुष्यों और अन्य प्राणियों को इसे कठोर तपस्या के द्वारा प्राप्त करना पड़ता है।