श्रीमद्भगवद्गीता

श्रीमद्भगवद्गीता,अध्याय 1- अर्जुन का शोक और सत्य की खोज।Bhagavad Gita, Chapter 1

श्रीमद्भगवद्गीता जीवन संग्राम से निकले हुए जीवन दर्शन का सिद्धांत प्रस्तुत करती है।स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि” संसार के बड़े सत्यों की खोज वनों के एकांतवास में नहीं हुई, बल्कि जीवन के संघर्षों और मूल्यों के मंथन से हुई है।” श्रीमद्भगवद्गीता का प्रारंभ उन कठिन और तनावयुक्त परिस्थितियों में होता है, जब लोग अपने जीवन की आशा को त्याग कर युद्ध के लिए एक दूसरे के आमने सामने खड़े थे।

कौरव और पांडव सेनाएं जिस वक्त एक दूसरे के विरुद्ध जीवन- मरण के संग्राम के लिए खड़ी थीं, ठीक उसी वक्त जीवन का सत्य का उद्घाटित होता है। अर्जुन विषाद में घिर जाता है और उसके शोक को दूर करने के लिए भगवान उसे उस जीवन दर्शन से परिचित कराते हैं, जो श्रीमद्भगवद्गीता के रुप में संसार के सामने आता है।

श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन का प्रवेश

श्रीमद्भगवद्गीता के प्रारंभ से पूर्व अर्जुन पूरे उत्साह से भरा हुआ था। सालों से जिस पल की वो प्रतिक्षा कर रहा था, वो घड़ी आ चुकी थी। अब अर्जुन द्रौपदी और अपने भाइयों के प्रति हुए अन्याय का बदला लेने के लिए पूरी तरह से तैयार था। युद्ध प्रारंभ करने के लिए शँख भी बजाए जा चुके थे,लेकिन तभी अचानक अर्जुन श्रीकृष्ण से कहता है –

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥1.20।।
श्लोक 1.20- 1.27 

अर्थः- “इसके बाद कपिध्वज (जिसकी रथ की ध्वजा पर वानर का चिन्ह है) अर्जुन ठीक शस्त्रपात की तैयारी के समय युद्ध की इच्छा के व्यवस्थित रुप से सामने खड़े धृतराष्ट्र पक्षीय लोगों को देख कर, धनुष (संभवतः गांडीव, लेकिन गांडीव लिखा नहीं गया है ) हाथ में उठा कर कहने लगा ।”

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥

अर्थः- संजय धृतराष्ट्र से कहता है कि “हे पृथ्वी के पति ! तब अर्जुन ने ह्षीकेश ( कृष्ण) से यह वाक्य कहा – ‘हे अच्युत ! दोनों सेनाओं के मध्य में मेरे रथ को खड़ा कीजिए’ ।”

व्याख्याः- श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय के श्लोक 20 और 21 युग्मक श्लोक हैं । अर्थात दोनों को मिलाकर पूरा पढ़ने से ही अर्थ निकाल कर व्याख्या की जा सकती है ।

अर्जुन के रथ की ध्वजा पर हनुमान

श्लोक 20 में संजय धृतराष्ट्र को अर्जुन की स्थिति का वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि अर्जुन की ध्वजा पर वानर का चिन्ह अंकित है । यहाँ यह स्पष्ट नहीं है कि अर्जुन के रथ पर महावीर हनुमान जी विराजित हैं। इसको लेकर दो प्रकार की बातें हैं। अर्जुन की ध्वजा पर वानर का चिन्ह भी अंकित था और अर्जुन के रथ के उपर हनुमान जी भी विराजते थे।

महाभारत के आदिपर्व के अध्याय 224(Chapter 224) में कथा है कि अग्निदेव अर्जुन से खाण्डववन को नष्ट करने की प्रार्थना करते हैं। अर्जुन अग्निदेव से एक दिव्य धनुष, तरकश और एक दिव्य रथ की माँग करते हैं। अग्निदेव वरुणदेव को बुलाते हैं और अर्जुन को एक दिव्य रथ प्रदान किया जाता है। इस रथ का वर्णन इस प्रकार हैः-

सोमेन राज्ञा यद् दत्तं धनुश्चैवेषुधि च ते । तत प्रयच्छोभयं शीघ्रं रथं च कपिलक्षणम्।

अर्थः- अग्निदेव ने वरुणदेव से कहा कि -” राजा सोम ने आपको जो दिव्य धनुष और दिव्य तरकश दिए हैं, वो दोनों मुझे शीघ्र दे दीजिए। साथ ही कपियुक्त ध्वजा ( Flag with the sign of monkey) से सुशोभित रथ भी प्रदान कीजिए।”

रथं च दिव्याश्वयुजं कपिप्रवरकेतनम्। उपेतं राजतैरश्वैर्गान्धर्वैर्हैममालिभि।।

अर्थः-” इसके अलावा वरुणदेव ने दिव्य अश्वों से जुता हुआ एक रथ भी प्रस्तुत किया, जिसकी ध्वजा पर श्रेष्ठ कपि विराजमान था। उसमें जुते हुए अश्वों का रंग चांदी के समान सफेद था। वे सभी घोड़े गंधर्वदेश में उत्पन्न तथा सोने की मालाओं से विभूषित थे।”

तापनीया सुरुचिरा ध्वजयष्ठिरनुत्तमा।
तस्यां तु वानरो दिव्यः सिंहशार्दूलकेतन्।।

अर्थः- “उस रथ का ध्वजदंड बड़ा सुंदर और सुवर्णमय था । उसके उपर सिंह और व्याघ्र के समान भयंकर आकृति वाला दिव्य वानर बैठा था।”

दिधछन्निव तत्र स्म संस्थितो मूर्धन्यशोभत।
ध्वजे भूतानि तत्रासन् विविधानि महान्ति च।
नादेन रिपुसैन्यानां येषां संज्ञा प्रणश्यति ।।

अर्थः- “उस रथ के शिखर पर बैठा हुआ वानर ऐसा जान पड़ता था जैसे वो शत्रुओं को भष्म कर डालेगा। उस ध्वज में और भी नाना प्रकार के प्राणी रहते थे, जिनकी आवाज़ सुन कर शत्रु सैनिकों के होश उड़ जाते थे। “

इन श्लोकों से पता चलता है कि अर्जुन के रथ की ध्वजा पर वानर का चिन्ह था और साथ में एक दिव्य वानर भी बैठता था। अर्जुन के रथ की ध्वजा पर कई अन्य प्राणी भी विराजित रहते थे। हालांकि ये भी सत्य है कि महाभारत के युद्ध के वक्त भगवान हनुमान जी भी अर्जुन के रथ की ध्वजा पर विराजित हुए थे। महाभारत के ‘वन पर्व’ में भीम और हनुमान जी के बीच मुलाकात का वर्णन आता है । महाभारत के ‘वन पर्व’ के अध्याय 151 (Chapter 151) में हनुमान जी भीम को दो वरदान देते हैं-

चमू विगाह्य शत्रूणां शरशक्तिसमाकुलाम।
यहा सिंहरवं वीर करिष्यसि महाबल।।
तदाSहं बृंहयिष्यामि स्वरवेण रवं तव।
विजयस्य ध्वजस्थश्च नादान् मोक्ष्यामि दारुणान।।

अर्थः- भगवान हनुमान ने भीम से कहा-” हे महाबली वीर ! जब तुम बाण और शक्ति के आघात से व्याकुल हुई शत्रुसेना में घुस कर सिंहनाद करोगे तो उस समय मैं अपनी गर्जना से तुम्हारे सिंहनाद को और भी बढ़ा दूंगा। इसके अलावा मैं अर्जुन के रथ की ध्वजा पर बैठ कर मैं ऐसी भीषण गर्जना करुंगा , जो शत्रुओं के प्राण हरने वाली होगी और तुमलोग उन्हें सुगमता से मार सकोगे’।”

श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन का पहला संवाद

 श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन का संवाद पहली बार अध्याय 1 (Chapter 1) के श्लोक 20 में आता है । इसके पहले के श्लोकों में अभी तक अर्जुन का नाम केवल संजय और दुर्योधन के संबोधनों में आया है । अर्जुन का जिक्र दुर्योधन ने सिर्फ अन्य वीरों का नाम बतलाने के क्रम में किया है। और संजय भी वीरों के द्वारा शँख ध्वनि करते वक्त अर्जुन का नाम लेता है। संजय बताता है कि किस प्रकार अर्जुन ने भी अपना देवदत्त नामक शँख को बजाया।

 अध्याय 1(Chapter 1) के श्लोक 20 से पहले तक अर्जुन सक्रिय और स्वतंत्र रुप से श्रीमद्भगवद्गीता में नहीं नज़र आते हैं। विशेषकर उसी वक्त जब युद्धघोष हो चुका है और बस शस्त्र चलने ही वाले हैं,पहली बार अर्जुन एक सक्रिय भूमिका में आते हैं । धृतराष्ट्र के पक्ष की सारी सेना भी युद्ध के लिए सुव्यवस्थित हो चुकी है । सारा माहौल तनाव से भरा हुआ था। बस यही इंतजार था कि पहला बाण कौन चलाता है?

इस गहन तनाव के वक्त ही अर्जुन भी अपना धनुष उठा कर युद्ध का आह्वान करता है, तभी अचानक एक अलग घटना घटती है। अर्जुन के विचारों में परिवर्तन होता है और वो श्रीकृष्ण से कहता है कि ‘”आप मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य ले जा कर खड़ा कर दीजिए।”

श्लोक 21 में श्रीकृष्ण के लिए संजय और अर्जुन अलग अलग संबोधनों का इस्तेमाल करते हैं । संजय श्रीकृष्ण के लिए ‘ह्षीकेश’ संबोधन का इस्तेमाल करता है तो अर्जुन श्रीकृष्ण को ‘अच्युत’ कह कर संबोधित करते हैं।

‘ह्षीकेश’ का अर्थ होता है ‘जो इंद्रियों का स्वामी हो’ । ‘ह्षीक’ अर्थात ‘इंद्रियां’ और ‘ईश’ अर्थात् ‘स्वामी’ या ईश्वर । संजय ने श्रीकृष्ण को ‘ह्षीकेश’ कह कर धृतराष्ट्र को यह बताने का प्रयास किया है कि जिन इंद्रियों और विषयों से ग्रस्त आपके मोह आदि वृत्तियों के फलस्वरुप यह युद्ध शुरु होने वाला है , उस युद्ध के असली नायक ‘ह्षीकेश’ श्रीकृष्ण हैं। एक तरफ इंद्रियों के गुलाम धृतराष्ट्र हैं तो दूसरी तरफ इंद्रियों के स्वामी श्रीकृष्ण हैं।

अर्जुन श्रीकृष्ण को ‘अच्युत’ नाम से संबोधित करता है । ‘अच्युत’ संबोधन मूल रुप से विष्णु के लिए किया जाता है । भगवान विष्णु कभी अपने स्थान और कर्तव्य से ‘च्युत’ नहीं होते ( गिरते नहीं हैं)। वो अपने भक्तों के लिए अपने कर्तव्यों का पालन भी हमेशा करते हैं, इसलिए उन्हें ‘अच्युत’ कहा जाता है । दूसरे, ‘अच्युत’ का एक अर्थ यह भी है कि जिसका कभी पतन या पराजय न हो । भगवान विष्णु कभी पराजित नहीं होते । इस अर्थ में भी अर्जुन श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु मान रहा है और उन्हें ‘अच्युत’ कह कर संबोधित कर यह बता रहा है कि आपके साथ रहने से पराजय की कोई संभावना नहीं हो सकती है।

श्रीमद्भगवद्गीता में जीवन संग्राम से निकला सत्य है

अर्जुन श्रीकृष्ण से अपने रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में ले जाकर खड़ा करने का अनुरोध करता है । अर्जुन विवेकशील हैं । अर्जुन जानते हैं कि यह युद्ध एक तरफा महात्वाकांक्षा का परिणाम नहीं है । दोनों तरफ के लोगों की महात्वाकांक्षाओं की वजह से यह युद्ध संभव हुआ है । इसलिए वो इस युद्ध में खड़े दोनों पक्षों को लोगों का (जो उसके रिश्तेदार भी हैं) तटस्थ भाव से निरीक्षण करना चाहता है ।

जीवन एक संघर्ष है । हम अपने प्रियजनों और अपने शत्रुओं के बीच फंसे रहते हैं। अगर जीवन के सत्य को पाना है तो पहले स्वयं को अपने प्रियजनों और शत्रुओं के मध्य तटस्थ भाव से खड़ा रखना होगा । अर्जुन भी यही कर रहा है । वो साक्षी भाव से या तटस्थ भाव से दोनों पक्षों को देखना चाह रहा है ।

श्रीमद्भगवद्गीता के बारे में एक रोचक बात यह है कि जीवनयुद्ध के बीचो-बीच निकले सत्य की बात कहता है। अक्सर हम यह समझते हैं कि महान सत्य जंगल में और गुफाओं में ही निकलते हैं।श्रीमद्भगवद्गीता हमें यह बताती है कि जीवनयुद्ध के सबसे तनाव के क्षणों में ही सत्य निकल कर सामने आता है। जब हमारे पास कोई रास्ता नहीं बचता, जब हम सारी ओर से घिरे होते हैं, जब कोई रास्ता नहीं सूझ रहा होता है, तब ईश्वर हमारे अंदर उतरता है और हमें सत्य का मार्ग दिखाता है

महाभारत का युद्ध अर्जुन के लिए ऐसे ही तनाव से भरा क्षण था, जब उसके जीवन का लक्ष्य उसके ठीक सामने है । जब उसके और उसके परिवार के साथ हुए सारे अन्यायों पर फैसला आने का वक्त है, जब उसके सामने या तो मृत्यु या विजय का ही विकल्प सामने है, ठीक उसी वक्त अर्जुन के अंदर एक नया भाव उदित होने लगता है।

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥1.22।।

अर्थः-अर्जुन श्रीकृष्ण को संबोधित करते हुए कह रहा है कि “मैं युद्ध की इच्छा वाले इन योद्धाओं को जब तक अच्छी तरह से देख लूं। मुझे इस रण रुपी उद्योग, कार्य में मुझे किन – किन के साथ युद्ध करना है ।”

व्याख्याः- सारी सेना युद्ध के लिए तैयार खड़ी है। युद्ध का उद्घोष शँख ध्वनियों के जरिए हो चुका है । अब बस शस्त्र संपात अर्थात शस्त्र चलने की शुरुआत होनी है अर्जुन ने भी अपना धनुष उठा ही लिया था, लेकिन अर्जुन अचानक रुक सा जाता है, शायद उसके अंदर किसी तरह के नए विचारों का उदय शुरु हो चुका है। एक प्रकार के संशय की शुरुआत हो चुकी है। यहीं उसके संशयों की शुरुआत होती है कि उसे इस रण रुपी उद्योग में किन – किन के साथ युद्ध करना है।

अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पहले क्यों शोक हुआ?

ऐसा नहीं है कि अर्जुन ने पहले कोई युद्ध नहीं किया है । अर्जुन महाभारत के युद्ध से पहले हुए सारे युद्धों में अपराजेय रहा है। उसने इंद्र को युद्ध में पराजित किया है। भगवान शिव को युद्ध में संतुष्ट कर उनसे पाशुपातास्त्र प्राप्त किया है । उसने करोड़ों निवातकवच राक्षसों का वध किया है।इन निवातकवत राक्षसों को इंद्र भी पराजित न कर सके थे। यहां तक कि उसने विराट के युद्ध में अपने ही इन बंधु- बांधवों को भी पराजित किया था। विराट के युद्ध में तो जिनमें दुर्योधन, कर्ण, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और महान भीष्म सभी शामिल थे।

अर्जुन जानता है कि उसे इन्हीं कुटुंबों से युद्ध करना है, लेकिन इस बार का युद्ध एकदम अलग है। यह कुरुवंश ही नहीं समूची पृथ्वी का नक्शा बदलने वाला युद्ध है।अर्जुन जानता है कि महान विवेकशील भीष्म और द्रोणाचार्य को भी इस युद्ध का महत्व और परिणाम का पहले से ज्ञान है, फिर भी वो भी इस युद्ध में उसके सामने खड़े हैं।

अर्जुन श्रीकृष्ण से ये सब सिर्फ जानकारी एकत्रित करने के लिए नहीं कह रहा है, कि मैं देखूं कि मुझे किस- किस से युद्ध करना है, बल्कि वह श्रीकृष्ण को संभवतः यह बताना चाह रहा है कि भीष्म और द्रोण जैसे ज्ञानीजन लोग भी सबकुछ जानते हुए भी अन्याय और असत्य के साथ खड़ें हैं। भीष्म और द्रोण भले ही व्यक्तिगत ज्ञान और वीरता में महान थे ,लेकिन इतिहास उन्हें सिर्फ उनके ज्ञान और वीरता के आधार पर महान नहीं मानेगा।

भीष्म और द्रोण जैसे लोग इतिहास में हमेशा कमतर आँके जाएंगे क्योंकि वो असत्य और अधर्म के साथ खड़े रहे। उनका सारा ज्ञान और उनकी वीरता उस विकर्ण के सामने भी बौनी पड़ जाती है, जिसने युद्ध में सत्य का साथ देने के लिए पांडवों का साथ दिया।अर्जुन संभवतः श्रीकृष्ण को यही दिखाना चाह रहा है और खुद भी देखना चाह रहा है कि कैसे वीरता और ज्ञान भी असत्य की तरफ खड़े रह सकते हैं ।

युद्ध बस शुरु ही होने वाला है लेकिन एक महान वीर बिना सोचे समझे किसी पर हथियार नहीं चलाता, वो पहले देख लेता है कि कौन – कौन से लोग हैं जिनके साथ उसका युद्ध करना उचित हो सकता है और कौन- कौन से लोग हैं जिनके साथ युद्ध करना उचित नहीं होगा ?

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥1.23।।

अर्थः- “दुर्बुद्धि धार्तराष्ट्र(  दुर्योधन) का युद्ध में हित या प्रिय चाहने वाले जो ये सभी यहां एकत्र हैं, युद्ध की इच्छावालों को मैं भली भांति देख लूं ।”

व्याख्याः- अर्जुन यहां दुर्योधन को धृतराष्ट्र का पुत्र कह कर संबोधित करता है। इसका एक कारण ये है कि दुर्योधन ने भी पांडवों को ‘पांडुपुत्र'(Sons of Pandu) कह कर संबोधित किया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि ये युद्ध मूल रुप से धृतराष्ट्र और पांडु के पुत्रों के बीच है। युद्ध में आए दूसरे राजा सिर्फ किसी एक पक्ष का सहयोग कर रहे हैं।

अर्जुन यहां दुर्योधन को धृतराष्ट्र के पुत्र के रुप में संबोधित करते हुए उसे दुर्बुद्धि भी कहता है । धृतराष्ट्र पुत्र मोह में अंधे हैं और उनका पुत्र दुर्बुद्धि है । अर्जुन यहां बतलाना चाह रहा है कि यह युद्ध धृतराष्ट्र के पुत्र मोह और उस मोह से दुर्योधन की जो बुद्धिभ्रष्ट हुई है, उसी का परिणाम है । तभी तो धृतराष्ट्र और दुर्योधन दोनों ही यह जानते हुए कि पांडवों के पक्ष में सत्य , श्रीकृष्ण और महावीर हनुमान तीनों खड़े हैं,यु्द्ध के लिए तैयार हैं।

दुर्योधन और धृतराष्ट्र दोनों ही श्रीकृष्ण के ईश्वरीय स्वरुप से अवगत थे। ‘उद्योगपर्व’ में जब श्रीकृष्ण धृतराष्ट्र के दरबार में शांति दूत बन कर जाते हैं तो वहाँ भी दुर्योधन उनकी ईश्वरीय सत्ता को स्वीकार करता है –

स हि पूज्यतमों लोके कृष्णः पृथुललोचनः ।
त्रयाणामपि लोकानां विदितं मम सर्वथा ।।
(महाभारत,उद्योग पर्व 88/5)

अर्थः- “दुर्योधन कहता है कि विशाल नेत्रों वाले श्रीकृष्ण इस लोक में ही नहीं बल्कि तीनों लोकों में श्रेष्ठ हैं और ये बात मुझे पता है ।”

लेकिन फिर भी दुर्योधन श्रीकृष्ण के अनुरोध करने भी पांडवों को सुई की नोंक के बराबर जमीन देने को राज़ी नहीं होता है । इसलिए भी अर्जुन दुर्योधन को दुर्बुद्धि कह कर संबोधित करता है, क्योकि अगर दुर्योधन ने पांडवों को पाँच गाँव देने का अनुरोध स्वीकार कर लिया होता तो संभवतः ये युद्ध नहीं होता।

श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन के शोक का प्रारंभ

अर्जुन इसके  आगे यह भी कहता है कि वो यह भी देखना चाहता है कि ‘इस दुर्बुद्धि दुर्योधन का प्रिय चाहने वाले तथाकथित महान ज्ञानी और वीर लोग ( विशेषकर भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य) कौन हैं ?’ अर्जुन को पता था कि दुर्योधन अकेला इस महान युद्ध का संधान नहीं कर सकता था । दुर्योधन का सारा बल भीष्म, द्रोण और कर्ण के सहारे ही था । इसलिए अर्जुन प्रकारांतर से भीष्म और द्रोण आदि पर निशाना साधते हुए व्यंग्य करता है ।

संजय उवाच-

एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥1.24।।
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति ॥1.25।।

अर्थः- संजय ने कहा कि “हे भारतनिवासी धृतराष्ट्र ! निद्रा विजयी (गुडाकेश) अर्जुन के इस प्रकार कहने पर ह्षीकेश (इंद्रियों के स्वामी) ने दोनों सेनाओं के मध्य रथों में श्रेष्ठ उस रथ को स्थापित कर ऐसा कहा।

“भीष्म और द्रोण के सामने और समस्त भूपालों ( शल्य, जयद्रथ, वाह्लिक) के देखते देखते (उस उत्तम रथ को दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा करके श्रीकृष्ण बोले) – ‘हे पृथापुत्र अर्जुन ! इस कुरुक्षेत्र में संग्राम की इच्छा से समवेत (जुटे) हुए इन कुरुवंशी आदि को देख लो’।”

व्याख्याः-  श्लोक 24 और 25 दोनों युग्मक हैं। अर्थात एक दूसरे से जुड़े हुए हैं । फिर भी श्लोक 24 की व्याख्या अलग से भी की जा सकती है । यहां संजय श्रीकृष्ण के लिए ह्षीकेश अर्थात इंद्रियों के स्वामी की उपमा देते हैं। संजय अर्जुन को ‘गुडाकेश'( जिसने निद्रा को जीत लिया हो) कह कर संबोधित करते हैं। अर्जुन और लक्ष्मण दोनों ही ऐसे महान पुरुष रहे हैं, जिन्होंने अपने इंद्रियों को वश में कर निद्रा को भी जीत लिया था । एक तरफ इंद्रियजीत ‘गुडाकेश’ अर्जुन है, दूसरी तरफ इंद्रियों के ईश्वर श्रीकृष्ण हैं। प्रकारांतर से देखें तो इंद्रियजीत अर्जुन ने इंद्रियों के स्वामी श्रीकृष्ण को प्रसन्न कर अपने वश में कर लिया था। तभी तो श्रीकृष्ण ‘ह्षीकेश’ के रुप में अर्जुन की इंद्रियों के सारथी भी हैं और कृष्ण के रुप में अर्जुन के रथ के भी सारथी हैं।

अर्जुन के कहने पर ‘ह्षीकेश’ श्रीकृष्ण रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में ले जाकर खड़ा कर देते हैं । कृष्ण यह कार्य करते वक्त अर्जुन को ‘पृथापुत्र’ कह कर संबोधित करते हैं। अर्जुन की माँ कुंती का वास्तविक नाम ‘पृथा’ था, इसलिए पांडवों को उनकी माता पृथा के नाम से ‘पार्थ’ भी कहा जाता है । श्रीकृष्ण अर्जुन को सबसे पहले भीष्म और द्रोण जैसे महान ज्ञानी, वीरों और आदरणीयों को दिखाते हैं। इस क्रम में श्रीकृष्ण अर्जुन के रथ को दूसरे राजाओं के सामने से ले जाकर दोनों सेनाओं के मध्य में खड़ा करते हैं। श्रीकृष्ण इसके बाद कहते हैं कि “देखो इन कुरुवंशियों और उनके समर्थकों को जो युद्ध की अभिलाषा से दुर्बुद्धि दुर्योधन के साथ खड़े हैं ।”

तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥1.26।।

अर्थः- “तदन्तर पृथापुत्र अर्जुन ने वहां दोनों सेनाओं में युद्धार्थ सुसज्जित होकर स्थित पितृजन, पितामहवृन्द, आचार्यगण,मामालोग,भाइयों, पुत्रों,पौत्रों और मित्रों को देखा ।”

व्याख्याः- यहां एक बात ध्यान देने की है कि जहां श्रीकृष्ण अर्जुन को सिर्फ कौरवों की तरफ देखने के लिए कहते हैं, वहीं अर्जुन एक प्रकार की तटस्थता का भाव लेकर युद्ध के लिए खड़े दोनों पक्षों के लोगों को देखता है। अर्जुन ने यहां अपने ‘पितृजन'( Father like figures) अर्थात् पिता के तुल्य लोगों जैसे भूरिश्रवा आदि लोगों को देखा  । ‘पितामहवृन्द'( Great Grandfather like figures) अर्थात् भीष्म पितामह, सोमद्त्त और बाह्लिक जैसे वृद्ध जनों को देखा । आचार्यगणों ( Guru Like figures) में द्रोण,कृपाचार्य और अश्वत्थामा( आचार्यपुत्र भी आचार्य ही होता है ) को देखा ।

इसी प्रकार रिश्तेदारों में ‘मातुलः’ अर्थात मामाओं (Maternal Uncles), जैसे – शल्य, कुंतीभोज, पुरुजित आदि को देखा । ‘भ्रातृन्’ अर्थात भाइयों में ( Brothers) युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव , दुर्योधन, दुःशासन आदि को देखा। ‘पुत्रान्’ अर्थात पुत्रों ( Sons and Nephews) में अभिमन्यु, द्रौपदी से उत्पन्न पांडवों के पांचों पुत्रों, घटोत्कच, दुर्योधन पुत्र लक्ष्मण आदि को देखा । ‘पौत्रो'( Grandsons) में दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण से उत्पन्न पुत्रों और घटोत्कच आदि के पुत्रों को देखा ।

महाभारत का युद्ध कुरुवंश की 6 पीढ़ियों का युद्ध था

अगर ध्यान से देखें तो इस श्लोक में एक साथ कई पीढ़ियों का वर्णन कर दिया गया है । युद्ध इतना भयानक था कि पूरा कुरुवंश( Kuru Clan) ही इसमें समाहित था । पितामह( Great Grand Fathers) से लेकर पौत्र ( Grandsons) तक कोई नहीं था, जो इस युद्ध की विभिषिका से बचने वाला था । इस अर्थ में यह समूचे कुरुवंश को नष्ट करने वाला युद्ध था । शायद यही वजह थी कि अर्जुन ने जब अपनी सारी पीढ़ियों को अपने सामने खड़ा देखा तो उसके मन में शोक उत्पन्न हो गया।

श्वशुरान्‌ सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान् ॥1.27।।
कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत् ।

अर्थः- दोनों ही सेनाओं में स्थित श्वसुरजन( Father- in- Laws) एवं सुह्दों( Dear ones) को देखा। तब कुंतीपुत्र अर्जुन बंधु बांधवों सहित उन सभी संबंधियों को देखकर करुणा से भर गया वह विषाद करते हुए ऐसा बोला।

व्याख्याः- अर्जुन इसी क्रम में अपने श्वसुरजनों ( Father- In- Laws) अर्थात् द्रुपद आदि को देखता है।अपने प्रिय सात्यकि, धृष्टध्युम्न आदि को भी देखता है । अर्जुन का वास्वतिक विषाद यहीं से शुरु होता है, जब वो अपने लोगों को देख कर करुणा से भर जाता है । अर्जुन का यही विषाद गीता का आधार है ।

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