श्री दुर्गासप्तशती में जिन कई महान देवियों का वर्णन किया गया है और उन्हें आद्या शक्ति का एक महान स्वरुप बताया गया है। उनमें एक हैं माँ चंडिका । माँ चंडिका का स्वरुप बहुत ही उग्र है और वो माँ अम्बिका की सहायता के लिए प्रगट होती हैं। उनका अवतरण श्रीदुर्गा सप्तशती के पांचवे अध्याय में होता है ।
चंडिका और कालिका :
महिषासुर वध के बाद शुम्भ और निशुम्भ दैत्यों का उदय होता है । ये दोनों देवताओं को पराजित कर तीनों लोकों पर अधिकार कर लेते हैं। इन दोनों दैत्यों से मुक्ति के लिए एक बार फिर देवतागण आद्या शक्ति से प्रार्थन करते हैं।श्रीदुर्गा सप्तशती के पांचवे अध्याय में यह प्रार्थना दी गई हैः-
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रुपेणसंस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
तब वहां स्नान करने जा रही माता पार्वती उन देवताओं से पूछती हैं कि आप किनकी उपासना कर रहे हैं। तब माता पार्वती के शरीर के कोश के अंदर से प्रगट होकर शिवादेवी( शिवा का अर्था कल्याण करने वाली होता है, जो आद्याशक्ति हैं) कहती हैं कि ये सब मेरी ही उपासना कर रही हैं। तब माता पार्वती के शरीर से आद्याशक्ति शिवादेवी के रुप में तेजस्वी रुप लेकर प्रगट होती हैं और संसार में कौशिकी या चंडिका कहलाती हैं। माता पार्वती के शरीर का रंग काला पड़ जाता है और उनका श्याम स्वरुप संसार में कालिका देवी के रुप में प्रसिद्ध होता हैं। यही चंडिका देवी शुम्भ और निशुम्भ का संहार करती हैं।
शुम्भ और निशुम्भ का वध करती हैं चंडिका देवी :
श्रीदुर्गा सप्तशती में आद्या शक्ति चंडिका देवी के रुप में अवतार लेती हैं,जिसका उद्देश्य दो क्रूर राक्षसों का वध था । इन राक्षसों के नाम थे शुम्भ और निशुम्भ। ये दोनों भाई थे और दोनों ने ही देवताओं को पराजित कर तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया था । देवताओं की रक्षा के लिए चंडिका देवी जब शुम्भ और निशुम्भ से युद्ध करती हैं तो उन्हीं के शरीर से सभी देवताओं की स्त्री शक्तियां (अंबिका देवी देवताओं के तेज का सम्मिलित रुप थीं, जबकि यहां जो देवियां प्रगट होती हैं वो देवताओं की पत्नियां नहीं बल्कि उनकी स्त्री शक्तियां होती हैं) प्रगट होती हैं । इन्हीं स्त्री शक्तियों को इंद्राणी( इंद्र की पत्नी शचि नहीं), ब्रम्हाणी( ब्रम्हा की पत्नी सावित्री या गायत्री नहीं), वाराही( विष्णु के अवतार वाराह की स्त्री शक्ति), वैष्णवी( विष्णु की स्त्री शक्ति) महेश्वरी( भगवान महेश या शंकर की स्त्री शक्ति) कहा जाता है। ये स्त्री शक्तियां चंडिका देवी के शरीर को अपना माध्यम बनाती हैं और उनके शरीर से निकल कर शुम्भ और निशुम्भ की सेना का संहार करती हैं।
श्रीदुर्गा सप्तशती में हैं माँ चंडिका की स्तुति :
माँ चंडिका के पराक्रमों का वर्णन पंचम अध्याय से लेकर दशम अध्याय तक है । इसके अलावा श्रीदुर्गा सप्तशती में माँ चंडिका की ही स्तुति तंत्रोक्त देवी सूक्तम के नाम से अलग से भी दी गई है, जिसके पाठ से माँ प्रसन्न होकर मनचाहे वरदान देती हैं। इस स्तुति में उन्हें चर चराचर के सभी भावों की अधिष्ठात्रि देवी कहा गया है –
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रुपे न संस्थिता ।
नमस्त्तस्यै नमस्ततस्यै नमस्ततस्यै नमों नमः ।।
माँ चंडिका का उल्लेख अर्गला स्त्रोत्रम में भी किया गया है –
त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनी ।
अर्थात : तुम चंडिका के रुप में सारे रोगों का नाश करने वाली हो।
माँ चंडिका का वाहन भी सिंह ही है । माँ चंडिका के क्रोध से ही माँ कालिका प्रगट होती हैं और रक्तबीज , चंड- मुंड आदि का संहार करती हैं। एक तो स्वयं माँ चंडिका उग्र स्वरुप है , दूसरे, उनके अंदर से प्रगट हुई कालिका देवी भी प्रलयकारिणी हैं। माँ चंडिका को दुर्गा सप्तशती में कुंवारी कन्या के रुप में दिखाया गया है ।
माँ चंडिका कुमारी माता हैं :
श्रीदुर्गा सप्तशती की कथा के अनुसार जब शुम्भ और निशुम्भ का दूत उनके पास आता है और उनसे इन दोनों राक्षस भाइयों में से किसी एक के साथ विवाह करने के लिए प्रस्ताव देता है, तो माता चंडिका उससे कहती हैं कि “मेरा प्रण है कि मैं उसी से विवाह करुंगी जो मुझे युद्ध में पराजित कर देगा ।” इसके बाद ही वो साथ शुम्भ और निशुम्भ के साथ युद्ध शुरु कर देती हैं । माँ चंडिका का वास विंध्याचल में बताया गया है । माँ चंडिका को ही विंध्यवासिनी देवी के नाम से भी प्रसिद्धि प्राप्त है।
महिषासुर का वधः
महिषासुर का वध माता अम्बिका ने किया था और वो आद्या शक्ति की दूसरी स्वरुपा श्रीदुर्गा सप्तशती में दिखाई गई हैं। आद्या शक्ति की पहली स्वरुप श्रीदुर्गा सप्तशती में योगमाया देवी हैं जो विष्णु के वक्ष, नासिका और बाहुओं से दसपदी काली के रुप में प्रगट होकर मधु कैटभ का वध करती हैं। इसके बाद महिषासुर का वध करने के लिए देवी अम्बिका के रुप में देवताओं के शक्ति पुँज से प्रगट होत हैं। आद्या शक्ति पार्वती के शरीर से कात्यायनी या कौशिकी या चंडिका के रुप में प्रगट होकर शुम्भ निशुम्भ का वध करती हैं, जबकि पार्वती के ही स्वरुप महाकाली बनकर रक्तबीज और चण्ड मुंड का वध करती हैं।
महाकाली ने किया रक्तबीज वध
जब शुम्भ और निशुम्भ ने चंडिका देवी के पास दैत्यों की विशाल सेना भेजी तो उनमें से तीन दैत्य सबसे भयंकर थे। इस विशाल सेना से लड़ते लड़ते चंडिका क्रोधित हो गईं और उनके तीसरे नेत्र से महाकाली प्रगट होती हैं। ये महाकाली चण्ड और मुण्ड का वध कर संसार में चामुण्डा के रुप में विख्यात होती हैं ।इसके बाद एक महाशक्तिशाली राक्षस रक्तबीज सामने आता है । रक्तबीज की विशेषता यही थी कि उसके शरीर से निकली रक्त या खून की एक बूंद भी अगर धरती पर गिर जाए तो एक बूंद से करोड़ों नए रक्तबीज दैत्य पैदा हो जाते थे।
रक्तबीज को मारने के लिए चंडिका देवी की सहायक शक्तियों में ब्रह्माणी,महेश्वरी, कौमारी, इंद्राणी , नृसिंही आदि मातृदेवियां बहुत प्रयास करती हैं लेकिन रक्तबीज के खून की बूंद के गिरते ही करोड़ों नए रक्तबीज पैदा हो जाते । ऐसे में चंडिका देवी महाकाली से कहती हैं कि वो रक्तबीजों को समाप्त करें और उनके शरीरों से गिरने वाली खून की बूंदों को जमीन पर गिरने से पहले ही नष्ट कर दें।
श्रीदुर्गासप्तशती में महाकाली का विकराल रुप दिखाया गया है । उनका शरीर विशाल है, उनके शरीर पर नरमुंडो की माला है । वो अट्टाहास करते हुए अपने विशाल मुँह को बड़ा करती हैं, वो दाँत कटकटाती हैं। वो रक्तबीज का वध करने के लिए युद्धभूमि में दौड़ने लगती हैं। उनके साथ सियार, कुत्ते और कई हिंसक जानवर भी हैं। वो कई दैत्यों को खा जाती हैं । वो रक्तबीज के शरीर से गिरने वाली रक्त की बूँदों को जमीन पर गिरने से पहले ही पी जाती हैं। धीरे धीरे रक्तबीजों की संख्या कम होने लगती है। माँ महाकाली आखिर में रक्तबीज का वध कर माँ चंडिका के इस कार्य को आसान कर देती हैं और अंतर्धान हो जाती हैं।