रामलीला के महान प्रसंगों में एक है, श्री राम का चौदह वर्षों के लिए वनवास भोगना । राम के वनवास के दौरान राजकुमार श्रीराम एक महान योद्धा और ईश्वरीय अवतार के रुप में खुद को स्थापित कर संसार में मर्यादा स्थापित करते हैं। लेकिन अक्सर यह प्रश्न उठता है कि क्या अगर श्रीराम को वनवास नही मिलता तो वो रावण का वध कर पाते , क्या माँ सीता का हरण होता । क्या ये संयोग था कि राम के वनवास मिला या फिर एक प्रकार की तय योजना थी ।
राम का वनवास एक संयोग या प्रयोग ? :
शुद्ध सनातन धर्म के दोनों महाकाव्यों रामायण और महाभारत में वनवास के प्रसंग हैं। श्रीराम को वनवास मिला तो उसका परिणाम रावण के वध के रुप में हुआ । पांडवों को जब वनवास मिला तो उसका परिणाम महाभारत के युद्ध के रुप में हुआ और दोनों ही घटनाओं ने धर्म की संस्थापना की और अधर्म का नाश किया ।
फिर भी यह प्रश्न उठता है कि क्या राम के वनवास के बिना रावण का वध संभव हो पाता, तो इसका जवाब हां है । क्योंकि, वाल्मीकि रामायण के बालकांडसे ही रावण के वध की योजना बननी शुरु हो जाती है । जैसे ही विश्वामित्र श्रीराम के हाथो रावण के सहयोगियों ताड़का और सुबाहु का वध करवाते है, यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रीराम के अवतरण का उद्देश्य राक्षसों का वध है। अब चाहे वो राम के वनवास के द्वारा हो या फिर दूसरे किसी कारण से । अगर श्रीराम को वनवास नहीं मिलता तो भी रावण का वध निश्चित था, क्योंकि अन्य रामकथाओं और वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में श्रीराम के एक पूर्वज अनरण्य की कथा आती है, जिन्हें रावण ने पराजित किया था । राजा अनरण्य ने रावण को शाप दिया था कि उनके वंश में श्रीराम के रुप में विष्णु अवतार लेंगे और उसका वध करेंगे । श्रीराम को अपने इस पितृ ऋण को पूरा करना ही था । वनवास इसमें सिर्फ एक महत्वपूर्ण कड़ी थी ।
श्रीराम का वनवास दूसरे तपस्वियों से अलग था :
कैकयी ने श्रीराम के लिए जिस वनवास का वर दशरथ से मांगा था, उसमें श्रीराम को एक तपस्वी की तरह जीवन बीताना था । लेकिन श्रीराम और उनके भाई लक्ष्मण वनवास के लिए एक क्षत्रिय की भांति धनुष बाण लेकर निकले थे । एक वनवासी का क्षत्रिय की तरह अस्त्र शस्त्र लेकर निकलना निश्चय ही किसी योजना की तैयारी थी ।
विश्वामित्र ने ताड़का वध के बाद ही इंद्र के कहने पर श्रीराम को दिव्यास्त्रो से लैस कर दिया था । वाल्मीकि रामायण के अनुसार इंद्र ने ताड़का वध के बाद ही विश्वामित्र को यह इंगित कर दिया था कि वो भविष्य में होनें वाले राम-रावण युद्ध के लिए श्रीराम को दिव्यास्त्रों से लैस कर दें। यही विश्वामित्र ने किया भी । इसके अलावा पूरे वनवास के दौरान श्रीराम कई ऐसे ऋषियों भरद्वाज, अगत्स्य, अत्रि आदि से मिले, जिन्होंने श्रीराम को कई दिव्य विद्याएं दीं । श्रीराम ने वनवास के दौरान ही ऋषि सुतीक्ष्ण के सामने प्रतिज्ञा ले ली थी कि वो समूची राक्षस जाति का अंत कर देंगे ।
श्रीराम के वनवास से राक्षसों में भय फैल गया:
वाल्मीकि रामायण की कथा के अनुसार जैसे ही श्रीराम चित्रकूट पधारते हैं उनसे कुछ दिनों बाद ही कुछ ऋषि मिलने आते हैं और उनसे प्रार्थना करते हैं कि वो चित्रकूट छोड़ कर चले जाएं, क्योंकि खर और दूषण को यह पता चल गया है कि श्रीराम और लक्ष्मण चित्रकूट में आ गए हैं । ऋषियों को भय था कि श्रीराम और राक्षसों के युद्ध के बीच ऋषियों के प्राण संकट में पड़ सकते हैं। श्रीराम ऋषियों की बात मान कर दंडकारण्य में प्रवेश कर जाते हैं। लेकिन शूर्पनखा को रावण ने उस क्षेत्र का राज सौंप रखा था । निश्चय ही यह तय था कि आज या कल कभी न कभी श्री राम का रावण के इन सहयोगियों से सामना होता ही ।
श्रीराम की प्रतिज्ञा का सीता ने किया विरोध
जब श्रीराम दंडकारण्य में प्रवेश करते हैं तो वो चारो तरफ ऋषियों की हड्डियों को देखते हैं। वो चिंतित हो जाते हैं। जब श्रीराम सुतीक्ष्ण ऋषि के आश्रम में जाते हैं तो ऋषि राक्षसों के अत्याचार के बारे में बताते हैं। श्रीराम ये सुन कर व्यथित हो जाते हैं और प्रतिज्ञा लेते हैं कि वो राक्षसों का समूल नाश कर देंगे।
देवी सीता श्रीराम की इस प्रतिज्ञा का विरोध करती हैं और कहती हैं कि जब राक्षसों के साथ आपकी कोई सीधी शत्रुता नहीं हैं तो फिर आपने राक्षसों से दुश्मनी क्यों मोल ली? माता सीता उनसे कहती हैं कि आपने ये सब पहले से ही तय कर लिया था तभी आप धनुष बाण लेकर वनवास को निकले हैं। सीता एक ऋषि की कथा भी सुनाती हैं जिनके घर में एक राजा ने एक अस्त्र रख दिया था और ऋषि उस अस्त्र की रक्षा करने के क्रम में हिंसक बन गए थे। देवी सीता उन्हें कहती हैं कि आप भी वन में अस्त्र लेकर चल रहे हैं इसलिए आपके अंदर ऐसी भावना का जन्म हुआ है।
श्रीराम देवी सीता को समझाते हैं कि ऋषियों की रक्षा करना क्षत्रिय का धर्म है और इसी वजह से उन्होंने ये प्रतिज्ञा की है।
श्रीराम ने वनवास को क्यों स्वीकार किया:
जब कैकयी ने श्रीराम को वनवास के लिए दशरथ जी को विवश कर दिया तो लक्ष्मण जी सहित अयोध्या के कई लोगों में क्रोध और हताशा का संचार हो गया था । किसी के लिए भी इस अन्याय को सहन कर पाना कठिन हो गया था, लेकिन श्रीराम मर्यादापुरुषोत्तम हैं। उन्होंने इस वनवास को भी जिस सहजता से स्वीकार किया वो अपने आप में महान घटना है ।
नियति के विधान का सम्मान किस प्रकार श्रीराम ने किया और अपने धैर्य का परिचय दिया, यह समस्त मानव जाति के लिए अनुकरणीय है। जब कैकयी ने श्रीराम के लिए वनवास मांगा ,तब दशरथ खुद यह निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि वो कैसे अपने प्रिय पुत्र श्रीराम को वनवास के लिए कहें। श्रीराम ने अपने पिता के इस संशय को जान लिया और खुद ही वनवास जाने के लिए तत्पर हो गए । ऐसे वक्त में जब सारा अयोध्या दुख में डूब गई और लक्ष्मण क्रोधित हो गए ,तब भी श्रीराम ने अपने धैर्य और महान चरित्र का प्रदर्शन किया।
श्रीराम और लक्ष्मण का प्रेम :
लक्ष्मण अपने प्रिय भाई के वनवास की खबर सुन कर न केवल क्रोधित हो गए, बल्कि वाल्मीकि रामायण के मुताबिक समूची अयोध्या के विनाश और दशरथ जी के वध तक के लिए तैयार हो गए थे। वाल्मीकि रामायण में लक्ष्मण के इस क्रोध को विस्तार से लिखा गया है –
निर्मनुष्याम् इमाम् सर्वाम् अयोध्याम् मनुज ऋषभ |
करिष्यामि शरैअः तीक्ष्णैः यदि स्थास्यति विप्रिये || २-२१-१०
अर्थ: लक्ष्मण कहते हैं कि हे श्री राम! अगर अयोध्या में किसी ने भी राम को वनवास जाने के लिए कहा और दशरथ के साथ खड़ा हुआ, तो मैं अयोध्या को अपने बाणों से मनुष्य विहीन कर दूंगा ।
भरतस्य अथ पक्ष्यो वा यो वा अस्य हितम् इच्चति |
सर्वान् एतान् वधिष्यामि मृदुर् हि परिभूयते || २-२१-११
अर्थ : लक्ष्मण जी कहते हैं कि हे श्री राम! अगर किसी ने भरत का भी साथ दिया, तो मैं उसे भी नहीं छोड़ूंगा ।
प्रोत्साहितोऽयम् कैकेय्या स दुष्टो यदिः पिता |
अमित्रभूतो निस्सङ्गम् वध्यताम् बध्यतामपि || २-२१-१२
अर्थ: हे श्रीराम! अगर दशरथ कैकयी की दुष्ट बुद्धि में उसके साथ खड़े होते हैं तो मैं उनका भी विरोध करुंगा और अगर जरुरत पड़ी तो मैं उनका भी वध करने से पीछे नहीं हटूंगा ।
पिता के प्रति भक्ति की महान मिसाल हैं श्रीराम लेकिन देखिए पिता भक्त श्रीराम क्या कहते हैं –
न अस्ति शक्तिः पितुर् वाक्यम् समतिक्रमितुम् मम |
प्रसादये त्वाम् शिरसा गन्तुम् इच्चाम्य् अहम् वनम् || २-२१-२९
अर्थ : “मैं किसी भी प्रकार अपने पिता के वचनों का विरोध नहीं करुंगा और मैं तुरंत सिर नवाकर वन को चला जाउंगा ।”
कश्चित् दैवेन सौमित्रे योद्धुम् उत्सहते पुमान् |
यस्य न ग्रहणम् किंचित् कर्मणो अन्यत्र दृश्यते || २-२२-२१
अर्थ : हे लक्ष्मण कोई नहीं जानता कि यह सब अचानक कैसे हुआ। हमें अपनी नियति के विधानों का पालन करना चाहिए ।कौन अपने भाग्य से लड़ सकता है ।
श्री राम अपनी माता कौश्ल्या जी को भी समझाते हुए कहते हैं कि “कौन जानता है कि भाग्य में क्या लिखा है?” –
देवि नूनम् न जानीषे महद् भयम् उपस्थितम् |
इदम् तव च दुह्खाय वैदेह्या लक्ष्मणस्य च || २-२०-२७
राम का यही धैर्य, अपने कर्मों में विश्वास और नियति का सम्मान का भाव उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनाता है