शुद्ध सनातन धर्म के महान ग्रंथ तुलसीकृत रामचरितमानस में इस लिखे गए इस दोहे के उपर पिछली कई शताब्दियों से संग्राम छिड़ा रहा है। आधुनिक नारीवादी और दलित चिंतकों ने इस दोहे के आधार पर सीधे- सीधे राम नारी विरोधी और शूद्र विरोधी ठहरा दिया है । दलित और नारीवादी आंदोलन में इस दोहे का इस्तेमाल अक्सर सवर्ण जातियों और पुरुषवादी सत्ता के खिलाफ किया जाता रहा है । लेकिन क्या यह सत्य है । क्या तुलसी और तुलसी के राम सच में नारी विरोधी या फिर शूद्र विरोधी हैं
सकल ताड़ना के अधिकारी
साहित्य और धर्मग्रंथ कैसे लिखे जाते हैं
जब हम या कोई भी लेखक या कवि किसी नाटक, उपन्यास, महाकाव्य, कविता या फिर किसी अन्य साहित्य या धर्मग्रंथ की रचना करता है तो उसकी एक शैली होती है। किसी कहानी में कई पात्र होते हैं। नायक होता है, विलेन होता है, मूर्ख और विद्वान पात्र होते हैं, सपोर्टिंग कास्ट होते हैं । कोई भी लेखक अपनी कहानी के अनुसार पात्रों का सृजन करता है और उस पात्र के चरित्र के अनुसार उनका चित्रण करता है और उनके अनुसार संवादों की रचना करता है । यह लेखक के निजी विचार नहीं होते बल्कि उस पात्र के चरित्र के अनुसार उसे वैसे संवादों की रचना करनी होती है।
साहित्य और धर्मग्रंथों के पात्र और उनके संवाद :
किसी भी धर्मग्रंथ, नाटक, उपन्यास के पात्रों के आधार पर और उसके स्वभाव के आधार पर संवाद लिखे जाते हैं। जैसे श्रीराम जैसे मर्यादित पुरुषोत्तम के लिए तुलसी ने ऐसे संवाद लिखे जो श्रीराम के व्यक्तित्व के अनुरुप हों। पूरा रामचरितमानस में श्रीराम का कोई भी ऐसा संवाद नहीं है जो नारी विरोधी हो, शूद्र विरोधी हो या फिर उन्होंने अपने शत्रुओं के लिए भी किसी अपशब्द का इस्तेमाल किया हो । तुलसी ने श्रीराम के मर्यादा के अनुसार ही उनके लिए संवाद लिखे।
ठीक इसी प्रकार तुलसी ने रावण, मेधनाद, कुंभकर्ण जैसे दुष्ट राक्षसों के चरित्रों के अनुसार ही संवाद लिखे हैं। रावण एक अहंकारी था तो उसके सारे संवाद अहंकार से भरे हुए हैं। वो नारी विरोधी और स्त्रियों का अपमान करता था इसलिए उसके सारे संवाद स्त्री सम्मान के विरोध में हैं। रावण वासना से भरा था इसलिए माता सीता के प्रति इसके संवाद वासना से भरे हैं। रावण माता सीता के लिए किस प्रकार हिंसक हो उठता था उसके इस विचार को तुलसी ने इस प्रकार
अपने शब्द दिए –
सुनत बचन पुनि मारन धावा। मयतनयाँ कहि नीति बुझावा॥
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई। सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई॥
मास दिवस महुँ कहा न माना। तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना॥
अर्थात: माता सीता के द्वारा रावण के प्रस्ताव को ठुकराने के बाद रावण माता सीता की हत्या करने के लिए दौड़ता है तब उसकी पत्नी मंदोदरी उसे रोकती है। तब रावण माता सीता को प्रताड़ित करने के लिए राक्षसियों को आदेश देता है । माता सीता को रावण एक महीने का वक्त देता है और कहता है कि अगर माता सीता उसके साथ विवाह के लिए तैयार नहीं होंगी तो वो उनका वध कर देगा।
तो क्या रावण के लिए तुलसी ने अगर ऐसे संवाद लिखे तो तुलसी भी अहंकारी, वासना युक्त, और नारी विरोधी हैं । नहीं, वो तो एक रचनाकार हैं जिसकी मजबूरी है कि वो दुष्ट पात्रों के हिसाब से वैसे संवाद लिखे जिससे रावण जैसे दुष्ट व्यक्तित्व के चित्रण के साथ न्याय हो सके ।
क्या भगवान श्री राम नारी विरोधी चरित्र है :
तुलसी के रामचरितमानस के नायक प्रभु श्री राम हैं और विलेन खलनायक रावण है । तुलसी के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। वो अपने हर कार्य और उद्देश्य के लिए मर्यादाओं का पालन करते हैं। तुलसी के राम अहिल्या को माता समान मानते हैं। अपनी सौतेली माता कैकयी के षड़यंत्र के बाद भी उनका वंदना करते हैं। शबरी के दिए फल खाते हैं, शत्रु वालि की पत्नी तारा की प्रशंसा करते हैं, अपने खलनायक और मुख्य शत्रु रावण के मारे जाने के बाद भी उनकी पत्नी मंदोदरी से सम्मान के साथ पेश आते हैं। राम का पूरा चरित्र कहीं से भी नारी विरोधी नजर नहीं आता ।
कुछ लोगों का मानना है कि श्री राम ने नारी ताड़का का वध किया और शूर्पनखा के नाक और कान काटने के लिए लक्ष्मण जी को प्रेरित किया । लेकिन ताड़का एक नारी से ज्यादा एक दुष्ट राक्षसी थी जिसका वध हजारों ऋषियों की जान बचा सकता था । शूर्पनखा के साथ श्री राम कहीं भी अपशब्दों का इस्तेमाल करते नज़र नहीं आते । श्रीराम तब ही लक्ष्मण को शूर्पनखा पर प्रहार करने के लिए मजबूरी में कहते हैं जब शूर्पनखा माता सीता की हत्या करने का प्रयास करती है ।
क्या श्री राम ने माता सीता का त्याग किया था :
यह एक बेहद विवादास्पद प्रश्न है क्योंकि न तो मूल वाल्मीकि रामायण में माता सीता के दोबारा वनवास जाने की कथा है न ही तुलसी के रामचरितमानस में ही धोबी के द्वारा कहे जाने पर श्री राम के द्वारा माता सीता को त्याग कर उन्हें वनवास भेजने का कोई प्रसंग है । ये कथा उत्तर वाल्मीकि रामायण में है जिसका रचनाकार कोई दूसरा वाल्मीकि है और वो मूल वाल्मीकि रामायण के रचयिता का भी अपने ग्रंथ में उल्लेख करता है । इस कथा की कोई भी प्रामाणिकता नहीं है । ऐसे में श्री राम को नारी विरोधी मानना पूरी तरह से गलत होगा ।
तुलसी के राम क्या शूद्र विरोधी हैं :
तुलसी के राम की वनयात्रा ही शूद्र राजा निषादराज गुह के साथ मिलन से शुरु होती है । निषादराज गुह को श्री राम अपना सबसे प्रिय मित्र मानते हैं और जब श्रीराम वनवास से दोबारा अयोध्या लौटते हैं तब भी वो अयोध्या प्रवेश से पहले अपने प्रिय मित्र निषादराज से मिलते हैं। एक सूर्यकुल तिलक क्षत्रिय श्रीराम का एक शूद्र निषादराज को अपना प्रिय मित्र मानना ही इस बात का सबूत है कि श्रीराम शूद्र विरोधी नहीं थे ।
दूसरे श्रीराम की सारी सेना ही आदिवासियों और वनवासियों से मिल कर बनी थी जिनका वर्ण व्यवस्था में भी स्थान क्या था ये निश्चित रुप से कहना कठिन है । श्री राम की वानर सेना और रीक्ष और भालुओं से बनी सेना क्या उच्च जाति से आती थी । नहीं क्योंकि स्वयं एक स्थान पर सुंदरकांड में महावीर हनुमान जी अपनी जाति का वर्णन करते हुए कहते हैं –
कहहुं कवन मैं परम कुलीना ।
कपि चंचल सबहिं विधि हीना ।।
प्रात लेई जो नाम हमारा ।
तेहि दिन ताहि न मिले अहारा
अर्थात: हे विभिषण मैं कौन सा किसी उच्च जाति से आता हूं। मैं तो चंचल बंदर हूं और सारी विधियों से हीन भी हूं।
इसके बाद महावीर हनुमान जी श्रीराम के बारे मे कहते हैं कि
अस मैं अधम सखा सुनु मोहु पर रघुबीर ।
कीन्ही कृपा सुमिरी गुन भरे विलोचन नीर ।
अर्थात : हे विभिषण मैं तो अधम हूं लेकिन मुझ पर रघुबीर ने बहुत कृपा की है ।
अब जब श्री राम निषाद राज से लेकर वानर और रीक्ष सब पर स्नेह बरसाने वाले हैं तो वो शूद्र विरोधी कैसे हो गए ।
फिर क्यों लिखा गया ढोल गंवार शूद्र पशु नारी सकल ताड़ना के अधिकारी :
- सबसे पहले ये जान लीजिए कि यह वचन कहीं से भी श्री राम के द्वारा न कहे गए हैं और न ही तुलसी के निजी विचार हैं । ये दोहा जड़ बुद्धि और अकड़ से भरे खलनायक समुद्र का है।
- जैसा हमने पहले ही बताया है कि किसी भी कथा में नायक, खलनायक और सहायक पात्र होते हैं। एक लेखक उन पात्रों के चरित्र के आधार पर ही उसके संवाद लिखता है।
- जैसे रावण का संवाद लिखने के लिए तुलसीदास ने एक नीच और अहंकारी व्यक्ति की मनोदशा के अनुसार संवाद लिखे। लेकिन क्या जो रावण के संवाद हैं वो राम के संवाद हो सकते हैं।
- क्या रावण की जो सोच है वो श्री राम की सोच हो सकती हैं।और क्या जो रावण का चरित्र और सोच हैं वही तुलसी दास की भी हो सकती हैं। नहीं ना।
- फिर अहंकारी समुद्र का बयान श्री राम का बयान कैसे हो सकता है। जो श्री राम शूद्र वर्ण के निषाद और केवट को अपना मित्र बनाते हैं
- जो श्री राम शूद्र वंश की शबरी के जूठे बेर खा सकते हैं वो कैसे शूद्र विरोधी हो सकते हैं। अब जरा इस पूरे प्रसंग को देखते हैं।
क्या है पूरा मामला इस दोहे का
प्रसंग ये है कि श्री राम समुद्र से लंका जाने के लिए रास्ता मांगने के लिए तीन दिन से प्रार्थना करने के बाद थक जाते हैं तो क्रोध से भर जाते हैं और लक्ष्मण को धनुष बाण लाने के लिए आज्ञा देते हैं-
लक्षिमन बान सरानन आनूं। सौषों बारिधि बिसिख कृषानु।
सठ सन विनय कुटिल सन प्रीति।सहन कृपन सन सुंदर नीति।।
अर्थात: हे लक्ष्मण जाओ धनुष बाण लेकर आओ मैं अग्निबाण से इस समुद्र को सुखा देता हूं। मूर्ख से विनय और कुटिल से दोस्ती और कंजूस से दान की बात करना ही बेकार है
फिर श्री राम के संवाद हैं
ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभि सन बिरती बखानी।
क्रोधिहि सम कामहि हरि कथा। उसर बीज बएं फल जथा।।
अर्थात: श्री राम कहते हैं कि ममता से फंसे व्यक्ति को ज्ञान की कहानी , लोभी को वैराग्य का उपदेश, क्रोधी के सामने शांति की बात और कामी मनुष्य को भगवान की कथा कहना वैसे ही जैसे बंजर भूमि पर फल उगाने का प्रयास करना।
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा।यह मत लछिमन के मन भावा।
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला।उठि उदधि उर अंतर ज्वाला।।
अर्थात: यह कह कर श्री राम धनुष पर बाण चढ़ा देते हैं जो लक्ष्मण के मन को भाता है। जैसे ही प्रभु बाण चढाते हैं समुंदर के अंदर से ज्वाला उठने लगती हैं
इसके बाद श्री राम जी मौन हो जाते हैं । और काकभुशुंडी जी का गरुड़ से संवाद होता हैं। इसके बाद समुद्र अपना अहंकार छोड़कर प्रभु श्री राम जी के पास आता है और उनके चरण पकड़ कर कहता है-
सभय सिंधु गहि प्रभु पद केरे।छमहु नाथ सब अवगुण मेरे।
गगन,समीर,अनल जल धरनी।इन्ह कई नाथ सहज जड़ करनी।।
अर्थात: भयभीत होकर समुद्र प्रभु के पैर पकड़ लेता है और अपने अवगुनों के लिए क्षमा मांगता है। समुद्र कहता है कि ये आकाश, वायु, अग्नि,जल और पृथ्वी ये पांचो तत्व जड़ होते हैं, अर्थात इनमें किसी प्रकार की संवेदना या बुद्धि नहीं होती हैं
तब प्रेरति माया उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाये।
रभु आयसु जेहि कहं जस अहई। सो तेहि भांति रहे सुख लहई।।
अर्थात: हे प्रभु आपकी ही प्रेरणा से माया के फलस्वरुप ये पांचो तत्व उपजाए गए हैं। ऐसा ही सभी ग्रंथों में भी कहा गया है। जिसके लिए स्वामी की जैसी इच्छा है वैसा ही रहने में सुख पाता है।
इसके बाद समुद्र का ये सबसे विवादित संवाद आता है जो किसी भी मूर्ख बुद्धि के व्यक्ति के द्वारा ही कहा जा सकता है। एक मूर्ख व्यक्ति जब ज्ञान की बात भी करता है तो भी उसके संवाद से मूर्खता ही झलकती हैं। इसी लिए तुलसीदास जी ने समुद्र के मुख से ऐसी मूर्खतापूर्ण बात कहलाई है जिसे सुन कर श्री राम जी को भी हंसी आ जाती है-
प्रभु भल किन्हि सीख मोही दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्हरी कीनी।
ढोल गंवार शूद्र पशु नारी । सकल ताड़ना के अधिकारी।।
अर्थात: समुद्र कहता है कि हे प्रभु आपने ठीक ही मेरे साथ ऐसा व्यवहार किया क्योंकि ढोल, गंवार, शूद्र और पशु नारी ये सभी दंड पाने के अधिकारी हैं
देखिए समुद्र न तो शूद्र है और न ही नारी। वो ब्राह्म्ण के वेश में आता है। ऐसा जड़बुद्धि ब्राह्मण जो ऐसी नीतियों की बात करता है जो अनैतिक हैं।
इसी लिए भगवान श्री राम उसकी इस मूर्खता को नजरअंदाज करते हुए हंसते हुए उसे चुप कर देते हैं और कहते है कि ठीक है अब रास्ता बताओ की समुद्र कैसे पार किया जाए-
सुनत बीनित बचन अति कह कृपाल मुस्काई।
जेहि बिधि उतरे कपि तात सो कहई उपाई।।
अर्थात: श्री राम मुस्कुराते हुए कहते हैं कि अब ये बताओं की मेरी बानर सेना समुद्र कैसे पार करे
श्री राम नहीं समुद्र है शूद्र और नारी विरोधी
पहली बात ये है कि यहां कहीं भी श्री राम के कोई भी ऐसे संवाद नहीं हैं जिनमें उनके शूद्र या नारी विरोधी होने की बात हो। दूसरे एक खलनायक और मूर्ख के मुंह से कैसी मूर्खों वाली बातें निकलती हैं यही तुलसीदास जी ने दिखाया है। क्योंकि न तो तुलसीदास जी ने और न ही श्री राम के संवादों मे कहीं भी शूद्र विरोधी या नारी विरोधी कही है। क्योंकि श्री राम का चरित्र ही ऐसा था कि जिनके राम राज्य में सभी वर्ण के लोग सरयू के तट पर एक साथ पानी पीते हैं।
समुद्र जड़बुद्धि और खलनायक है
वाल्मिकि रामायण में भी इस प्रसंग में समुद्र खुद को जड़बुद्धि कहता है और कहता है कि पांचों तत्व स्वभाव से ही जड़ होते हैं इसलिए श्री राम उनकी गलतियों के लिए क्षमा करें-
पृथिवी वायुर् आकाशम् आपो ज्योतिः च राघवः |
स्वभावे सौम्य तिष्ठन्ति शाश्वतम् मार्गम् आश्रिताः || २-२२-२५
अर्थात: हे श्री राम पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और अग्नि ये स्वभाव से ही जड़ होते हैं और अपने ही मार्ग पर चलते रहते हैं
बस राम चरितमानस और वाल्मिकि रामायण में समुद्र के संवादों में इतना ही अंतर है कि रामचरितमानस में जहां वो शूद्र और नारी विरोधी संवाद बोलता है वहीं वाल्मिकि रामायण में वो इस मामले पर कुछ भी नहीं बोलता।
समुद्र ने बोले नारी और शूद्र विरोधी संवाद
एक और बात ये है कि समुद्र का ये संवाद किसी भी प्रकार से दोहे के रुप में नहीं मिलता और न ही किसी प्रकार की तुकबंदी इसमें नज़र आती है जो तुलसीदास के दोहों में नजर आती है। सो ये भी संभव है कि किसी दूसरे जड़बुद्धि विद्वान ने बाद में रामचरितमानस में ये क्षेपक डाल दिया हो ताकि तुलसीदास के रामचरितमानस पर ये बदनामी का दाग लग जाए।