दिवाली की रात लक्ष्मी की पूजा की जाती है। देवताओं और इंसानों के साथ राक्षस भी लक्ष्मी के भक्त कहे जाते हैं। एक मान्यता ये भी है कि लक्ष्मी के पिता एक राक्षस थे जिनका नाम पुलोमा था। लक्ष्मी को ऋषि भृगु और उनकी पत्नी पुलोमा की संतान भी माना जाता है । इसी वजह से संभवतः पुलोमा राक्षस और ऋषि पत्नी पुलोमा के बीच ये संदेह पैदा हो जाता है कि लक्ष्मी किनकी पुत्री है।
लक्ष्मी- विष्णु की अराधना समस्त संसार करता है । लेकिन राक्षसों और विष्णु के बीच पुराना वैर है। विष्णु राक्षसों, दैत्यों और दानवों का वध करने के लिए प्रसिद्ध हैं। लेकिन राक्षसगण हमेशा विष्णु पत्नी लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए उनकी तपस्या करते हैं। लंकाधिपति रावण भी माँ लक्ष्मी का महान भक्त था। वो रावण जिसे मारने के लिए साक्षात नारायण को भी धरती पर श्रीराम के रुप में अवतार लेना पड़ा, वो रावण जिसे सारा जग विष्णु द्रोही के रुप में जानता है, जिसने साक्षात मां लक्ष्मी स्वरुपा माता जानकी का हरण किया था ,क्या वो सच में वो ही रावण लक्ष्मी- विष्णु की भक्ति कर सकता था
लक्ष्मी विष्णु और रावण की भक्ति :
रावण को शास्त्रों में प्रकांड पंडित कहा जाता है । उसे त्रिकालदर्शी भी कहा जाता है । रावण की मृत्यु के बाद भगवान श्रीराम भी उसकी तारीफ करते हैं और उसे एक महान योद्धा बताते हैं। जब विभीषण रावण की निंदा करता है तो श्रीराम उसकी निंदा करने से इंकार कर देते हैं, रावण की तारीफ करते हुए कहते हैं –
नैवं विनष्टाः शोच्यन्ते क्षत्रधर्मव्यवस्थिताः |
वृद्धिमाशंसमाना ये निपतन्ति रणाजिरे || ६-१०९-१६
अर्थात : “हे विभीषण! रावण की मृत्यु पर शोक करने का कोई कारण नहीं है । वो एक महान वीर था और तीनों लोकों में उसकी वीरता की तुलना कोई नहीं कर सकता था यहां तक कि इंद्र भी रावण की वीरता से भयभीत रहते थे ।”
मरणान्तानि वैराणि निर्वृत्तं नः प्रयोजनम् |
क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव || ६-१०९-२५
अर्थात : राम कहते हैं कि “दुश्मनी मृत्यु के साथ ही खत्म हो जाती है । हमारा उद्धेश्य पूरा हुआ अब रावण वैसे ही मेरे लिये भी उतना ही प्रिय है जितना तुम्हारे लिए वो प्रिय था ।”
तो क्या श्रीराम जानते थे कि रावण भले ही उपरी तौर पर उनका शत्रु था लेकिन भीतर ही भीतर वो भी श्रीराम को अपना आराध्य बना चुका था और भगवान विष्णु के अवतार के रुप में मान्यता देता था ।
शिवभक्त रावण विष्णु भक्त भी था :
वैसे रावण एक महान शिव भक्त था और भगवान शिव के आराध्य विष्णु हैं । ऐसे में रावण अपने आराध्य के आराध्य का शत्रु कैसे हो सकता था ? शिव को प्रसन्न करने के लिए रावण ने ‘शिव तांडव स्तोत्र’ की रचना की । इस स्तोत्र में उसकी शिव भक्ति के साथ साथ उसकी छिपी हुई लक्ष्मी- विष्णु भक्ति भी दिखती है । देखिए इस श्लोक को –
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम् ॥
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम ॥16॥
अर्थात : इस स्त्रोत्र में रावण कह रहा है कि “जो इस शिव तांडव स्तोत्र का रोजाना पाठ करता है, उसकी श्री हरि और अपने गुरु में भक्ति स्थिर बनी रहती है । अत भगवान विष्णु की भक्ति को स्थिर रखने के लिए उसके द्वारा रचित शिव तांडव स्त्रोत्र का पाठ जरुर करना चाहिए ।” इसका अर्थ ये भी है कि रावण अपनी भक्ति को विष्णु के प्रति स्थिर रखने के लिए ही शिव तांडव स्तोत्र का पाठ किया करता था, ताकि भगवान शिव उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसकी भक्ति को विष्णु के प्रति स्थिर कर दें ।
रावण यहीं नहीं रुकता है, वो शिव तांडव स्तोत्र के अंतिम श्लोक में लिखता है –
पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥17॥
अर्थात : रावण कहता है कि “अपने प्रतिदिन की पूजा के खत्म होने के वक्त जो इस शिव तांडव स्तोत्र का पाठ करता है या फिर प्रदोष के दिन भगवान शिव की इस स्तोत्र से पूजा करता है, उसके पास रथ और गज से युक्त महालक्ष्मी हमेशा उसकी तरफ प्रसन्न रहती हैं और वरदान देती हैं ।”
तो क्या रावण जानता था कि भगवान शिव की इस स्तुति के जरिए ही वो लक्ष्मी- विष्णु दोनों भक्ति भी प्राप्त कर लेगा । जी हां ! रावण को अपनी माता के वंश की तरफ से भले ही विष्णु द्रोह की शिक्षा मिली हो, लेकिन वो अपने पिता की तरफ से ब्रह्मा का वंशज था । उसके दादा पुलत्स्य ऋषि थे जो भगवान विष्णु के महान उपासक थे। ऋषि पुलस्त्य श्रीराम के अवतरण के बारे में जानते थे ,तभी जब विभीषण ने रावण को श्रीराम की शरण में जाने को कहा, तो उसने अपने दादा ऋषि पुलस्त्य के द्वारा भेजे गए संदेश को ही पढ़ा –
बार बार पद लागउं, विनय करउं दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहुं कोसलाधीश।।
मुनि पुलस्ति निज शिस्य सन कहि पठहिं यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कहि पाई सुअवसरु तात।।
अर्थात : रावण के दादा और गुरु ऋषि पुलत्स्य ने जब रावण को ये बताया कि जिन हरि की भक्ति वो करता रहा है वो अब श्रीराम के रुप में अवतार ले चुके है। तभी संभवत रावण ने यह समझ लिया था कि अब विष्णु उसे मुक्त कराएंगे और पुन वैकुंठ ले जाएंगे।
पुराणों की कथा के मुताबिक रावण और कुंभकर्ण पूर्वजन्म में जय और विजय के नाम से जाने जाते थे और दोनों वैकुंठ में विष्णु के द्वारपाल थे। इन्हें सनकादि ऋषियों के शाप की वजह से रावण और कुंभकर्ण के रुप में जन्म लेना पड़ा था । शाप के मुताबिक जय और विजय को राक्षसों के रुप में तीन जन्म लेने थे। पहले जन्म में ये दोनों मधु और कैटभ के रुप में जन्में। भगवान विष्णु ने मधु- कैटभ के रुप मे जन्में जय- विजय का वध किया।
इसके अगले जन्म मे जय और विजय हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के रुप में जन्में। भगवान विष्णु ने वाराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष ( जय) और नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकश्यप( विजय) का वध किया । आखिरी जन्म में जय- विजय रावण और कुंभकर्ण के रुप में पैदा हुए। इस जन्म में विष्णु श्रीराम के रुप में आए और इन दोनों का वध कर इन्हें मुक्ति दे दी।
- वैसे भी रावण की भगवान विष्णु से कोई सीधी दुश्मनी नहीं थी । रावण पिता की तरफ से ब्रह्मा का वँशज था, लेकिन माता की तरफ से वो राक्षस जाति से आता था ।रावण के नाना सुमाली, माल्यवान और माली ने लंका नगरी पर पूर्व में शासन किया था । लेकिन उन्होंने अपनी तपस्या के घमंड में आकर देवताओं पर हमला कर दिया था, विष्णु ने देवताओं की सहायता की और इन राक्षसों को पाताल में रहने को मजबूर कर दिया।
- राक्षसों के नेता सुमाली ने कुबेर के पिता विश्रवा की सेवा में अपनी बेटी कैकशी को भेजा। कैकशी ने विश्रवा की सेवा कर रावण, कुंभकर्ण, शूर्पनखा और विभीषण के रुप में संतान प्राप्त किया। हालांकि विश्रवा ने पुत्र प्राप्ति के लिए कैकसी से समागम तो किया था लेकिन यह भी भविष्यवाणी कर दी थी कि कैकसी के पुत्र राक्षसो में भी सबसे खतरनाक प्रवृत्ति के होंगे।
- कैकसी से रावण का जन्म हुआ तो नाना सुमाली ने रावण को बचपन से ही विष्णु के प्रति दुश्मनी के बारे में बताया । हालांकि विश्रवा और पुलत्स्य जानते थे कि विष्णु के अवतार के रुप में श्रीराम आने वाले हैं। तभी जब रावण के दरबार में महावीर हनुमान जी भी आते हैं तो लंकेश को उसके पिता के वंश की याद कराते हैं, जो विष्णु के भक्त हैं –
ऋषि पुलत्स्य जसु विमल मयंका
जसु ससि महुं तुम्ह होहु कलंका ।।
अर्थात : महावीर हनुमान जी रावण के वंश की विष्णु भक्ति को जानते थे । लंकेश भी विष्णु भगवान की मन ही मन अराधना करता था । लेकिन फिर भी अपने नाना के बहकावे और अपने पिता के शाप की वजह से उसकी प्रवृत्ति बदल नहीं पाई ।
रावण के पिता विश्रवा और उसके दादा पुलस्त्य के संस्कार भी उसमें बाकी रह गए थे । रावण ये भी शिव स्वयं विष्णु की अराधना करते हैं। ऐसे में प्रत्यक्ष रुप से वो खुद को लक्ष्मी- विष्णु का भक्त नहीं दिखाना चाहता था और राक्षसों के साथ हुए अन्याय में उनके साथ खड़ा दिखना चाहता था। फिर भी अंदर ही अंदर वो विष्णु भक्ति के परिणामों को जानता था, इसलिए शिव तांडव स्तोत्र लिखते समय उसने चुपके से अपनी लक्ष्मी- विष्णु भक्ति का भी दर्शन विद्वानों को करा दिया।