श्रीमद्भगवद्गीता

श्रीमद् भगवद्गीता | कर्मयोग की परंपरा और वर्णव्यस्था का उद्भव

श्रीमद् भगवद्गीता के अध्याय 4 का प्रारंभ दरअसल अध्याय 3 का ही विस्तार है, जिसमें भगवान ने अर्जुन को कर्मयोग की महिमा समझाई है। अध्याय 3 में भगवान ने अर्जुन को  कर्मयोग या यज्ञकर्म रुपी तत्त्व का ज्ञान दिया है ,जिसके द्वारा अपनी बुद्धि को समत्व भाव में लाकर अविनाशी सत् की प्राप्ति के लिए कर्म किया जाता है ।

भगवान अध्याय 4 के प्रारंभ में अर्जुन को यह बताते हैं कि जिस कर्मयोग का ज्ञान उन्होंने अध्याय 3 में दिया है वो कोई नया ज्ञान नहीं है बल्कि यह आदिकाल से चला आ रहा है ।

श्री भगवानुवाच

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌ ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌ ॥
imaṅ vivasvatē yōgaṅ prōktavānahamavyayam.
vivasvān manavē prāha manurikṣvākavē.bravīt৷৷4.1৷।

अर्थः-श्री भगवान बोले- मैंने इस अव्यय योग(यानी विकार रहित कर्मयोग) को विवस्वान् सूर्य से कहा था,  विवस्वान् सूर्य ने अपने पुत्र मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु से कहा।

व्याख्याः- भगवान इस श्लोक में कर्मयोग की प्राचीनता सिद्ध करते हुए बताते हैं कि इस योग को सबसे पहले उन्होंने विवस्वान् सूर्य को कहा था और इसके बाद सूर्य ने अपने पुत्र मनु को इस कर्मयोग का ज्ञान दिया था और इसके बाद मनु ने इसे अपने पुत्र इक्ष्वाकु को कहा ।

विवस्वान् सूर्य और उनकी वँशावली क्या है ?

 पौराणिक कथाओं के अनुसार ऋषि कश्यप और उनकी पत्नी अदिति से 12 आदित्यों का जन्म हुआ है। इन 12 आदित्यों को ही देवता भी कहा जाता है। इन आदित्यों में इंद्र, वरुण, विवस्वान् सूर्य, धाता, अयर्मा आदि हैं। विवस्वान् सूर्य से ही पृथ्वी पर पहली बार मनुष्यों के प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ है और उन्हें ही वैवस्वत् मनु भी कहा जाता है । इन्हीं वैवस्वत् मनु से मानव जाति का उद्भव माना जाता है । इन्होंने ही अयोध्या नगरी की स्थापना की और इनके ही पुत्र इक्ष्वाकु के वंश में श्री राम ने जन्म लिया।

भगवान क्या सनातन हैं ?

भगवान कहते हैं कि मैंने सबसे पहले इस अविनाशी योग को विवस्वान सूर्य को कहा । फिर सवाल उठता है कि भगवान क्या उस काल में भी थे? अगर गीता के श्रीकृष्ण ही भगवान हैं तो वो उस काल में कैसे उपस्थित थे और फिर इतने हजारों वर्षों तक जीवित कैसे रहे? श्रीकृष्ण ही अगर भगवान हैं और हर काल में वो श्रीकृष्ण के रुप में ही रहे तो फिर श्रीराम के काल में वो कहां थे? क्या श्रीकृष्ण के इस शरीर को ही भगवान कहा जाता है या कोई ऐसी सत्ता है जिसे भगवान कहा जाता है और वो शरीर बदल कर हरेक युग में बार- बार जन्म लेती है।

राजर्षि किसे कहते हैं ?

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥
ēvaṅ paramparāprāptamimaṅ rājarṣayō viduḥ.
sa kālēnēha mahatā yōgō naṣṭaḥ parantapa৷৷4.2৷৷ 

अर्थः- हे परंतप (अर्जुन) ! इस प्रकार परंपरा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, वह योग बहुत काल से इस लोक में नष्टप्राय हो गया।

व्याख्याः- भगवान कहते हैं कि यह योग जो मैंने सबसे पहले विवस्वान सूर्य को कहा था , वह परंपरानुसार पिता – पुत्र की वंश परंपरा से चलता रहा और इस योग को राजर्षियों ने भी जाना।

‘राजर्षि’ उन राजाओं के लिए प्रयुक्त होता है जो राजा होते हुए भी धर्म के तत्त्व को जानते हैं। इक्ष्वाकु कुल परंपरा में कई ऐसे राजा हुए हैं जो कर्मयोग रुपी इस धर्मज्ञान से परिपूर्ण थे। इक्ष्वाकु कुल में ही ययाति, नहुष, शिबि , दिलीप जैसे महान राजर्षि हुए , जिन्होंने अपने कर्मयोग के ज्ञान से उत्तम लोकों की प्राप्ति की। श्रीराम भी इक्ष्वाकु कुल में ही उत्पन्न हुए थे। वो धर्म और मर्यादा के शिखर पुरुष थे। उन्हें महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखित श्रीविष्णुसहस्त्रनाम में ‘धर्मोधर्मविदुत्तमम’ अर्थात ‘धर्म को जानने वाला बताया गया है ।‘

कर्मयोग की परंपरा नष्ट हो गई

लेकिन, जैसा कि अक्सर होता है वँश परंपरा में कई ऐसे व्यक्ति भी उत्पन्न होते हैं जो परंपरा से प्राप्त ज्ञान को समझ नहीं पाते और वह ज्ञान धारा नष्ट हो जाती है। भगवान अर्जुन को यही बता रहे हैं कि जिस कर्मयोग रुपी ज्ञान को मैंने विवस्वान् सूर्य को कहा था वो वंश परंपरा से श्रीराम तक  लगातार अविच्छिन्न रुप से पहुंची लेकिन बाद में वो इस लोक में नष्ट हो गई। भगवान यहां स्पष्ट कर रहे हैं कि यह ज्ञान कभी भी नष्ट नहीं हो सकता, लेकिन किसी स्थान विशेष में वो जरुर नष्ट हो सकता है । इसलिए भगवान जोर देकर अर्जुन को कहते हैं कि यह ज्ञान इस ‘लोक विशेष’ में अब नष्ट हो गई है। इस लोक विशेष अर्थात पृथ्वी पर इसकी पुनर्स्थापना आवश्यक है।

भगवान कर्मयोग के ज्ञान की पुनर्स्थापना की है

भगवान इस कर्मयोग के ज्ञान के नष्ट होने की वजह जान चुके हैं। वो जानते हैं कि वँश परंपरा से इस ज्ञान को ज्यादा काल तक सहेज कर रखा नहीं जा सकता । इसलिए वो इस ज्ञान की पुनर्स्थापना एक नए प्रकार से कर रहे हैं।

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्‌ ॥
sa ēvāyaṅ mayā tē.dya yōgaḥ prōktaḥ purātanaḥ.
bhaktō.si mē sakhā cēti rahasyaṅ hyētaduttamam৷৷4.3৷৷ 

अर्थः- तुम मेरे भक्त, सखा प्रपन्न शिष्य हो, इसलिए वही वह पुराना योग मेरे द्वारा तुझे कहा गया है, क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है।

व्याख्याः- भगवान इस लोक में नष्ट होने वाले कर्मयोग के पुरातन योग की पुनर्स्थापना के लिए नई परंपरा बना रहे हैं। वो इस बार पिता- पुत्र की वँश परंपरा के अनुसार कर्मयोग के ज्ञान को पीढियों तक नहीं ले जाने की बात कर रहें , बल्कि वो भक्त और शिष्य परंपरा से इस ज्ञान को आगे की पीढ़ियों तक ले जाने की परंपरा की शुरुआत करते हैं।

कर्मयोग के भक्त, शिष्य और सखा परंपराओं की स्थापना

इसलिए, भगवान अर्जुन को कहते हैं कि तुम मेरे भक्त हो , तुम मेरे सखा भी हो और तुम मेरे शिष्य भी हो। इसलिए मैनें पिता पुत्र की परंपरा से हट कर अब भगवान – भक्त, गुरु- शिष्य और सखा के परंपरा की शुरुआत करते हुए एक बार फिर से इस उत्तम रहस्यात्मक ज्ञान को स्थापित किया है। अर्जुन ने भी अध्याय 2 के श्लोक 10  में पहले ही यह घोषणा कर दी थी कि वो भगवान का भक्त और शिष्य बन कर उनसे कल्याणपरक साधन को जानना चाहता है-

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥2.7॥
kārpaṇyadōṣōpahatasvabhāvaḥ
pṛcchāmi tvāṅ dharmasaṅmūḍhacētāḥ.
yacchrēyaḥ syānniśicataṅ brūhi tanmē
śiṣyastē.haṅ śādhi māṅ tvāṅ prapannam৷৷2.7৷৷ 

अर्थः- इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए।

अर्जुन भगवान की शरण में आ चुका है । इसलिए वो उनका भक्त भी है। अर्जुन ने भगवान को अपना गुरु भी मान लिया है इसलिए वो उनका शिष्य भी है । लेकिन भगवान अर्जुन के सखा भी है। एक मित्र अपने प्रिय मित्र से सारे रहस्य बता देता है। इसलिए भगवान अर्जुन को एक मित्र होने के नाते भी यह रहस्य बताते हैं। इसलिए यहां भगवान तीनों संबंधो( गुरु-शिष्य , भगवान- भक्त और सखा संबंध) को इस कर्मयोग रुपी उत्तम रहस्य के उद्घाटन का आधार बनाते हैं और वंश परंपरा के द्वारा स्थापित ज्ञान परंपरा का निषेध कर देते हैं।

भगवान के दिव्य अवतारों का सिद्धांत

भगवान ने पिछले श्लोकों में यह कहा कि उन्होंने सबसे पहले इस रहस्य को विवस्वान सूर्य को बताया था। विवस्वान सूर्य से उनके पुत्र मनु को यह ज्ञान प्राप्त हुआ और इसके बाद मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को इस कर्मयोग का ज्ञान दिया था। इक्ष्वाकु के वंशजों के द्वारा यह ज्ञान आगे की पीढियों में स्थानांतरित होता रहा । श्रीराम भी इसी कुल के थे इसलिए उन्होंने भी इस रहस्य को जाना था। लेकिन अगर श्रीकृष्ण ही खुद भगवान हैं और वो श्रीराम और विव्सवान् आदि से पहले भी हो चुके थे तो फिर वो आज तक कैसे जीवित हैं। अर्जुन यही प्रश्न भगवान से करता है-

अर्जुन उवाच / arjuna uvāca

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥
aparaṅ bhavatō janma paraṅ janma vivasvataḥ.
kathamētadvijānīyāṅ tvamādau prōktavāniti৷৷4.4৷৷ 

अर्थः- अर्जुन बोले- हे श्रीकृष्ण आपका जन्म तो अभी कुछ काल पहले ही हुआ है, जबकि विवस्वान का जन्म तो बहुत पहले हो चुका है, तब आपने आदिकाल में ही इस योग को कहा था ,ऐसा मैं कैसे जानूं कि आपने ही इस रहस्य को विवस्वान सूर्य को कहा था?

व्याख्याः- अर्जुन इस शरीर को ही जन्म और मरण वाला समझ रहा है, जबकि भगवान प्रारंभ से ही कह रहे हैं कि अविनाशी सत् नित्य शरीरी है । उसका न तो जन्म होता है और न ही मरण होता है। अविनाशी सत् ही त्रिगुणात्मक माया का आवरण लेकर अलग- अलग काल में शरीर धारण करता है।

ईश्वर और जीव मे क्या अंतर है?

  • अविनाशी सत् का परम अँश ही जब त्रैगुणात्मक माया का आवरण लेता है तो वह ईश्वर के रुप में शरीर धारण करता है। वही अविनाशी सत् का परम अँश त्रिगुणात्मक माया को अंगीकार कर जब साकार ईश्वर के रुप में शरीर धारण करता है तो उसे यह ज्ञान होता है कि वो जीवन -मरण से मुक्त अविनाशी सत् ही है ।
  • इस अविनाशी सत् के शरीर रुपी ईश्वर के द्वारा कई लघु अविनाशी सत् के अँशों को त्रिगुणात्मक माया के आवरण के द्वारा नए शरीरों का रुप दिया जाता है जो प्राणी या जीव कहलाते हैं। इसी प्रक्रिया की अविनाशी सत् के वृहदत्तम साकार स्वरुप ईश्वर के द्वारा सृष्टि रचना का कार्य कहा जाता है ।
  • लघु अविनाशी सत् के को जब ईश्वर के द्वारा त्रिगुणात्मक माया के आवऱण में रख कर शरीर धारण कराया जाता है तो उससे उत्पन्न जीव को यह ज्ञान नहीं होता कि वो भी अविनाशी सत् का ही एक अँश है।
  • यही फर्क ईश्वर और उसके द्वारा रचित प्राणियों के बीच होता है । ईश्वर को यह ज्ञान होता है कि वो अविनाशी सत् है और जीव इस सत्य से अंजान होता है कि वो भी अविनाशी सत् का ही एक अँश है जो त्रिगुणात्मक माया के आवरण रुपी शरीर में कैद है।
  • इसलिए अर्जुन भी श्रीकृष्ण को अपने जैसा ही त्रिगुणात्मक माया के आवरण में कैद जीव के समान समझ रहा है , और श्रीकृष्ण के जन्म को भी एक साधारण जीव के जन्म की तरह की मान रहा है।

इसलिए अर्जुन यह सवाल करता है कि आखिर कैसे वो विवस्वान सूर्य के काल में भी जीवित थे और आज भी वो जीवित हैं।

भगवान अविनाशी सत् हैं जिनका न जन्म होता है और न ही मृत्यु

भगवान या ईश्वर अविनाशी सत् का वह वृहदत्तम अँश है जिसे इस बात का ज्ञान होता है कि वह स्वयं अविनाशी सत् ही है। इसलिए भगवान अर्जुन को कहते हैं कि  –

श्रीभगवानुवाच / śrī bhagavānuvāca

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥
bahūni mē vyatītāni janmāni tava cārjuna.
tānyahaṅ vēda sarvāṇi na tvaṅ vēttha parantapa৷৷4.5৷৷ 

अर्थः- श्री भगवान बोले- हे अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत से जन्म बीत चुके हैं। मैं उन सभी जन्मों को जानता हूं, परंतप! तू नहीं जानता ।

व्याख्याः- भगवान इस श्लोक में अर्जुन को अपने और उसके अंदर स्थित अविनाशी सत् की निरंतरता के बारे में बताते हुए कह रहे हैं कि मेरे त्रिगुणात्मक माया के आवरण से बने इस शरीर के अंदर  स्थित अविनाशी सत् और तुम्हारे इस त्रिगुणात्मक माया के आवरण से बने इस शरीर के अंदर स्थित अविनाशी सत् ने अलग- अलग कालों में कई शरीर धारण किये हैं।

जब शरीर की आयु पूर्ण हो जाती है और वह शरीर मरण की गति को प्राप्त होता है तो अविनाशी सत् त्रिगुणात्मक माया के इस शरीर को त्याग कर फिर दूसरे त्रिगुणात्मक माया के आवरण से बने शरीर को धारण करता है। इसे ही जन्म और मृत्यु का चक्र कहते हैं। जन्म और मृत्यु शरीर की होती है, उसके अंदर स्थित अविनाशी सत् की नहीं होती ।

भगवान ने अर्जुन के गीता के अध्याय 2 के श्लोक 12 में पहले भी कहा था कि वो और अर्जुन और सभी प्राणी सभी कालों में विद्यमान रहे हैं –

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ॥2.12॥
na tvēvāhaṅ jātu nāsaṅ na tvaṅ nēmē janādhipāḥ.
na caiva na bhaviṣyāmaḥ sarvē vayamataḥ param৷৷2.12৷৷ 

अर्थः- न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।

भगवान कहते हैं कि अर्जुन तुम्हें इस सत्य का अहसास नहीं है, लेकिन मुझे हैं। ऐसा भगवान इस लिए कह रहे हैं, क्योंकि वो अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश हैं और उनके पास दो प्रकार की शक्तियां हैं।

  • पहली शक्ति यह है कि उन्हें इस बात का ज्ञान है कि वो अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश हैं और वो त्रिगुणात्मक माया को अंगीकार कर अलग- अलग कालों में अलग- अलग शरीर धारण कर सकते हैं।
  • दूसरे, भगवान को इस बात का भी ज्ञान है कि वो अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश अर्थात ईश्वर या भगवान होकर त्रिगुणात्मक माया के आवरण को धारण कर साकार रुप में भगवान होकर प्रगट होते हैं और दूसरे  अविनाशी सत् के लघु अँशों या सूक्ष्म अँशों को त्रिगुणात्मक माया का आवरण देकर जीवों के रुप में सृजित कर सकते हैं।
  • भगवान और जीव में यही फर्क होता है कि जीव को अपने अविनाशी सत् के लघु या सूक्ष्म अँश होने का अहसास नहीं होता है जबकि भगवान को यह ज्ञान होता है कि वो अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश हैं और त्रिगुणात्मक माया को अंगीकार कर वो साकार शरीर रुप में जन्म धारण करते हैं।
  • इसलिए वो जानते हैं कि किसी काल में अविनाशी सत् का वृहदत्तम अँश त्रिगुणात्मक माया को अंगीकार कर वामन अवतार के रुप में शरीर धारण करता है तो कभी श्रीराम के रुप में शरीर धारण करता है तो कभी साक्षात श्रीकृष्ण के रुप में शरीर धारण करता है। यही ईश्वर के अवतार का सिद्धांत है।
भगवान कैसे प्रगट होते हैं ?

अजोSपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्‌ ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥
ajō.pi sannavyayātmā bhūtānāmīśvarō.pi san.
prakṛtiṅ svāmadhiṣṭhāya saṅbhavāmyātmamāyayā৷৷4.6৷৷ 

अर्थः- अजन्मा, अविनाशी स्वरुप होते हुए भी, सभी प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी, अपने समभाव को साथ लेकर (यानी अपनी प्रकृति में स्थित रह कर ) अपनी माया ( यानी अपने संकल्प) से प्रगट होता हूँ।

व्याख्याः- भगवान इस श्लोक में अर्जुन को ईश्वर के प्रगटीकरण का सिद्धांत बता रहे हैं। चूंकि भगवान को इस बात का ज्ञान है कि वो अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश हैं और उनके पास त्रिगुणात्मक माया को धारण कर अपनी इच्छा से शरीर धारण करने की क्षमता है, इसलिए वो खुद को ईश्वर के रुप मे घोषित भी कर रहे हैं।

भगवान कहते हैं कि वो अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश हैं और इसलिए अजन्मा हैं। भगवान जानते हैं कि वो सभी प्राणियों के ईश्वर इसलिए हैं क्योंकि उनके पास अविनाशी सत् के लघु अँशों को त्रिगुणात्मक माया के आवरण में रख कर विभिन्न शरीरों के रुप में प्राणियों को जन्म देने की शक्ति भी है। अब भगवान अपने प्रगटीकरण के सिद्धांत के बारे में भी अर्जुन को बताते हैं। भगवान कहते हैं कि वो समभाव को साथ लेकर त्रिगुणात्मक माया को अंगीकार करते हैं और फिर शरीर धारण कर साकार रुप में प्रगट होते हैं।

ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में है ईश्वर के मूल स्वरुप का ज्ञान

  • सृष्टि का उद्भव कैसे हुआ ? सृष्टि का रचयिता कौन है? क्या वो निराकार है ? क्या वो साकार है? क्या वो गुणों से युक्त है या फिर वो गुणरहित है। इसका सबसे पहले उल्लेख विश्व के प्राचीनतम पवित्र ग्रंथ ऋग्वेद के दशम मंडल के 129 वें सूक्त में मिलता है, जिसे ‘नासदीय सूक्त’ भी कहते हैं।
  • ‘नासदीय सूक्त’ में उस काल का वर्णन है जब सृष्टि का प्रलय हो चुका है और सृष्टि की फिर से रचना होनी बाकी है । सनातन धर्म में कयामत की संकल्पना नहीं है। सनानत धर्म में सृष्टि और प्रलय की चक्रीय अवधारणा है। सृष्टि की रचना होती है और कुछ काल के बाद उसका प्रलय हो जाता है और इसके बाद फिर से सृष्टि की रचना होती है। यह क्रम अनंत काल तक चलता ही रहता है।
  • ‘नासदीय सूक्त’ में उस काल का वर्णन है जब प्रलय काल है और सारी सृष्टि का लय हो चुका है। सूक्त का रचनाकार प्रश्न करता है कि सृष्टि का रचयिता कौन है। किस काल में सृष्टि की रचना हुई है। कौन है सृष्टि का रचयिता?

नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्।
किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥१॥

अर्थः- तब या उस काल में(तदानीम्) असत् अर्थात अभाव या नाशवान या अनित्य जैसा कुछ नहीं था । अविनाशी, अनित्य सत् या भाव( नो सत् आसीत्) भी नहीं था। अर्थात उस प्रलयावस्था में व्यक्त या अवयक्त किसी का पता नहीं चलता था ( रजः न आसीत्)।

विभिन्न लोक ( मृत्युलोक, पाताललोक, स्वर्गलोक) भी नहीं थे। आकाश भी नहीं था ( परः यत्), आकाश से भी परे यदि कुछ हो सकता है तो उसका भी पता नहीं था। किस देश में (कुह), किसके कल्याण के लिए (कस्य शर्मन्), कौन किसको आवरण करे(किम् आवरीवः) । इसलिए आवरण (त्रैगुणात्मक अर्थात सत्व , रजस और तम ) भी नहीं था। क्या (किम्) गहन, गंभीर जल था ? नहीं वह भी नहीं था।

सत् और असत् का अर्थ क्या है?

यहां सत् का अर्थ व्यक्त है जो रुप या आकार युक्त होता है । और असत् का अर्थ व्यक्त और अव्यक्त दोनों ही है, लेकिन रुपविहीन है। असत् प्रकृति को भी कहते हैं जो अव्यक्त और व्यक्त दोनो ही हो सकती है।। अर्थात सृष्टि से पहले न तो कुछ व्यक्त या प्रगट था और न ही सृष्टि के पहले कुछ अव्यक्त या अदृश्य ही था।

भगवान ने गीता के अध्याय 2 के श्लोक 16 में कहा है कि

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥2.16॥
nāsatō vidyatē bhāvō nābhāvō vidyatē sataḥ.
ubhayōrapi dṛṣṭō.ntastvanayōstattvadarśibhiḥ৷৷2.16৷৷

अर्थ:- असत्‌ वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्‌ का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।

भगवान कहते हैं कि जो अव्यक्त(सत्) है उसकी सत्ता हो नहीं सकती और असत्( व्यक्त और अव्यक्त दोनों ही लेकिन रुपवीहीन संज्ञा के साथ) का तो भाव ही नहीं है अर्थात वह नाशवान है।

जब कुछ नहीं था तो कौन था  और क्या था?

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥२॥

अर्थः न मृत्यु थी और न ही उस समय अमृत था और न ही रात्रि और दिन का कोई पता था। तब उस समय कुछ था भी या नहीं?  वह (सृष्टि की रचयिता, पुरुष, ईश्वर, परमेश्वर, ब्रह्म या कोई अन्य नाम वाल सृष्टिकर्ता ) था भी या नहीं?

इस पर सूक्त कहता है कि हां! वह एक ( ईश्वर, ब्रह्म या परमेश्वर) अपनी निज सत्ता (स्वधया) के साथ चेतनास्वरुप ( स्थूलरुप नही, साकार रुप में नहीं) विद्यमान था। निज सत्ता सहित उसके( ईश्वर, ब्रह्म, परमेश्वर, पुरुष) अतिरिक्त कुछ भी नहीं था।

यहां स्वध्या में स्व= निज, एवं धा= धारण किए हुए हो, का अर्थ निकाला गया है । इसका अर्थ यह है कि वह एक (परमेश्वर, ईश्वर, पुरुष या निराकार सृष्टिकर्ता) अपनी सत्ता को धारण किये चेतनास्वरुप में अकेला था। 

गीता के अध्याय 13 के श्लोक 13 में इस प्रश्न को और भी विस्तार से समझाते हुए कहा गया है कि जब सत् और असत् दोनों ही सृष्टि के पहले नहीं थे तो फिर कौन था- 

ज्ञेयं यत्तत्वप्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥
jñēyaṅ yattatpravakṣyāmi yajjñātvā.mṛtamaśnutē.
anādimatparaṅ brahma na sattannāsaducyatē৷৷13.13৷৷

अर्थ:- जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है, उसको भलीभाँति कहूँगा। वह अनादिवाला परमब्रह्म न सत्‌ ही कहा जाता है, न असत्‌ ही৷ 

भगवान गीता में अर्जुन को यही समझाते हैं कि वो सत् और असत् से परे हैं और व्यक्त रुपी अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश हैं जो असत् रुपी त्रैगुणात्मक प्रकृति को अंगीकार कर ईश्वर या परमब्रह्म के रुप में प्रगट या व्यक्त होते हैं।

भगवान अवतार क्यों लेते हैं ?

संसार के सारे धर्मों में सनातन धर्म ही इकलौता ऐसा धर्म है, जिसमें ईश्वर साकार रुप में प्रगट होते हैं। अविनाशी सत् का वृहदत्तम अँश जब त्रिगुणात्मक माया का आवरण लेकर बार-बार शरीर धारण कर ईश्वर के रुप में पृथ्वी पर आते हैं तो उसे ईश्वर का अवतरण कहा जाता है। अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश के द्वारा त्रिगुणात्मक माया को अंगीकार कर ईश्वर के रुप में शरीर धारण करने के दो उद्देश्य बताए गए हैं। पहला उद्देश्य है, अविनाशी सत् के लघु अँशों को त्रिगुणात्मक माया के आवरण में रख कर उन्हें प्राणी के रुप में जन्म देना है। दूसरा उद्देश्य है, धर्म की संस्थापना करना । धर्म क्या है और धर्म की संस्थापना के लिए कैसे ईश्वर का प्राकट्य होता है? इसे भगवान गीता के इस श्लोक में समझा रहे हैं –

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥
yadā yadā hi dharmasya glānirbhavati bhārata.
abhyutthānamadharmasya tadā৷৷tmānaṅ sṛjāmyaham৷৷4.7৷৷

अर्थः- हे अर्जुन ! क्योंकि जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान होता है, तब तब मैं अपने आप को सृजित कर लेता हूँ।

व्याख्याः- आमतौर पर यह माना जाता है कि विष्णु ही अवतार लेते हैं। हालांकि बाद में कई ग्रँथों में कई दूसरी ईश्वरीय सत्ताओं को भी अवतार लेते दिखाया गया है। अवतार का अर्थ होता है नीचे उतरना।

अगर ‘धर्म’ को विष्णु वाचक शब्द माना जाए तो इस श्लोक का अर्थ होता है, जब -जब विष्णु स्वरुप अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश के प्रति संशय होता है या विष्णु के अवतारों की महत्ता कम होती है, तब -तब धर्म स्वरुप विष्णु पृथ्वी पर वापस अवतार लेते हैं और पुनः विष्णु या धर्म की महत्ता को स्थापित करते हैं।

‘धर्म’ का एक अर्थ यह भी है कि ‘जो प्रेरित करे वही धर्म है( चोदनालक्षणोSर्थो धर्मः) ।‘ अर्थात् जब संसार में अविनाशी सत् की प्राप्ति हेतु किए जाने वाले कर्मयोग रुपी प्रेरणा की हानि होने लगती है तब इस धर्म रुपी प्रेरणा को फिर से स्थापित करने के लिए अविनाशी सत् का वृहदत्तम अँश त्रिगुणात्मक माया को अंगीकार कर ईश्वर के रुप में अवतरित होता है। इस श्लोक में ‘सृजाम्यहम’ उपवाक्य से तात्पर्य यह है कि अविनाशी सत् त्रिगुणात्मक माया का आवरण लेकर ईश्वर के रुप में खुद को सृजित करते ही हैं और साथ में वो इसी साकार रुप के अंदर स्थित अविनाशी सत् के कुछ अँशों को लेकर फिर से एक अलग त्रिगुणात्मक माया रुपी शरीर के साथ भी अवतार ले सकते हैं।

 जैसे उदाहरण के लिए विष्णु अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश के रुप मे ईश्वर के रुप में प्रगट होते हैं। फिर वो धर्म की संस्थापना के लिए अवतार लेने के लिए अपने ही अंदर स्थित अविनाशी सत् के कुछ अँशो को लेकर त्रिगुणात्मक माया को फिर से अंगीकार कर एक नया शरीर बनाते हैं जिसे हम अवतार कहते हैं। भगवान विष्णु के अँशावतारों में मत्स्य, वाराह, नृसिंह और श्रीराम प्रमुख रहे है, जिन्होंने पृथ्वी पर धर्म की संस्थापना के लिए अवतार लिया । इसका अर्थ यह भी है कि अँशावतारों के अवतार लेने के वक्त विष्णु भी पूर्ण रुप से मौजूद थे।

श्रीकृष्ण अवनाशी सत् के परम अँश के शरीर धारी रुप हैं

श्रीकृष्ण स्वयं विष्णु के पूर्णावतार हैं। इसका अर्थ यह है कि अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश विष्णु ने अपने अविनाशी सत् के पूर्ण अँश को एक नए त्रिगुणात्मक माया के आवरण में खुद को अंगीकार कर स्वयं ही पृथ्वी पर अवतरण किया । जब स्वयं विष्णु ने श्रीकृष्ण के रुप मे पृथ्वी पर अवतार लिया तो विष्णु की अलग सत्ता उस काल के लिए नहीं रही थी । भगवान कहते हैं कि जब जब अधर्म की वृद्धि होती है और धर्म की हानि होने लगती है, तब अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश रुपी साकार ईश्वर स्वयं से स्वयं को सृजित कर लेते हैं। स्वयं को स्वयं से सृजित कर लेने की शक्ति सिर्फ ईश्वर के पास ही होती है।

भगवान के अवतरण का उद्देश्य क्या है ?

 हालांकि भगवान ने पिछले श्लोक में स्वयं को स्वयं से सृजित होने की दो वजहों में एक वजह यह बताई है कि वो धर्म की संस्थापना के लिए अवतार लेते हैं। भगवान अगले श्लोक में धर्म की संस्थापना के लिए कौन से तत्त्वों को स्थापित करना जरुरी है ,यह भी बता रहे हैं –

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
paritrāṇāya sādhūnāṅ vināśāya ca duṣkṛtām.
dharmasaṅsthāpanārthāya saṅbhavāmi yugē yugē৷৷4.8৷৷

अर्थः- साधुओं का परित्राण करने के लिए, दुष्टों का विनाश करने के लिए और धर्म की संस्थापना के लिए मैं युग- युग में प्रगट होता हूँ।

व्याख्याः- भगवान कहते हैं कि मैं साधुओं के परित्राण के लिए हरेक युग में प्रगट होता हूं। तो प्रश्न उठता है कि साधु कौन है? भगवान ने गीता के अध्याय 9 के श्लोक 30 में साधु का परिचय देते हुए कहते हैं कि –

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्‌ ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥9.30॥
api cētsudurācārō bhajatē māmananyabhāk.
sādhurēva sa mantavyaḥ samyagvyavasitō hi saḥ৷৷9.30৷৷

अर्थः- यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है।

इसका अर्थ यह है कि जिसकी बुद्धि निश्चयात्मक है उसे साधु कहा जाता है । भगवान ने गीता के अध्याय 2 में स्थिर बुद्धि से युक्त कर्मयोगी के बारे में विस्तार से बताया है जिसकी बुद्धि अविनाशी सत् की प्राप्ति हेतु निश्चित हो चुकी है । भगवान उसे ही साधु भी कहते हैं।

साधुओं के परित्राण के लिए ईश्वर का अवतार होता है

भगवान ऐसे साधुओं जिनकी बुद्धि समत्व भाव से स्थिर हो चुकी है उनके परित्राण अर्थात उन्हें पूर्ण रुप से अविनाशी सत् के प्रति ज्ञानलब्ध कराने हेतु अवतार लेते हैं। भगवान की लीलाएं, उनका दर्शन ऐसे साधुओं को उपलब्ध हो जाता है और वो अविनाशी सत् के प्रति ज्ञानलब्ध होकर मुक्त हो जाते है।

दुष्टों के विनाश के लिए ईश्वर अवतार लेते हैं

भगवान ने अपने अवतरण का दूसरा उद्देश्य दुष्टों का विनाश बताया है । दुष्ट कौन है? दुष्ट वह है जो अनिश्चयात्मक बुद्धि से युक्त है और उसकी बुद्धि नीच कर्मों में लगती है। भगवान कहते हैं कि ऐसे दुष्टों का मैं विनाश कर देता हूं जो धर्म के मार्ग पर नहीं चलते हैं और साधुओं के मार्ग में बाधा डालते हैं।

भगवान तीसरा उद्देश्य बताते हैं कि वो धर्म की संस्थापना के लिए अवतार लेते है। धर्म वह जो है, मनुष्य को अविनाशी सत् की प्राप्ति के मार्ग पर प्रेरित करे । भगवान ऐसे कर्मयोग की स्थापना के लिए अवतार लेते हैं, ताकि लोग उनका अनुसरण कर सकें। भगवान अपने कर्मों के द्वारा ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिससे धर्म की संस्थापना हो सके ।

भगवान के जन्म और कर्म दिव्य हैं

भगवान ने पिछले श्लोकों में अपने शरीर धारण की प्रक्रिया और उद्देश्यों को बताया । अब भगवान अपने जन्म और कर्मों की दिव्यता का अहसास करा रहे हैं। वो अर्जुन से कहते हैं कि  –

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः ।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
janma karma ca mē divyamēvaṅ yō vētti tattvataḥ.
tyaktvā dēhaṅ punarjanma naiti māmēti sō.rjuna৷৷4.9৷৷ 

अर्थः- हे अर्जुन! मेरा जन्म और कर्म दिव्य है , ऐसा जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है , वह शरीर को त्याग कर पुनः जन्म नहीं लेता है और मुझको ही प्राप्त करता है ।

व्याख्याः- भगवान का जन्म कैसे दिव्य है । भगवान अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश के द्वारा त्रिगुणात्मक माया के आवरण को अंगीकार कर साकार रुप में प्रगट होने वाले सर्वोच्च ईश्वरीय सत्ता हैं।

भगवान का जन्म इसलिए दिव्य है क्योंकि एक तो वो अविनाशी सत् के परम अँश हैं, दूसरे उनके पास यह शक्ति कि वो अविनाशी सत् के लघु अँशों को त्रिगुणात्मक माया के आवरण में डाल कर प्राणी रुप में जीवों की रचना करते हैं। तीसरे, उन्हें अपने अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश होने का भान है । चौथे, वो स्वयं को स्वयं से सृजित कर अवतार रुप में सृजित होने की क्षमता से लैस हैं ।

भगवान के कर्म दिव्य हैं

  • भगवान के कर्म भी दिव्य इसलिए हैं, क्योंकि उनके उद्देश्य महान हैं। वे अपने कर्मों के द्वारा उदाहरण प्रस्तुत करते हैं ताकि मनुष्य कर्मयोग के द्वारा अपने अंदर स्थित अविनाशी सत् को प्राप्त कर मुक्त हो सके ।
  • दूसरे, भगवान के महान कर्म संसार में धर्म की संस्थापना करना , साधुओं का उद्धार करना और दुष्टों का विनाश कर धर्म की संस्थापना करना है।
  • भगवान कहते हैं कि जो भी मनुष्य भगवान के जन्म की दिव्यता को और उद्देश्यों को जान लेता है वो भी अविनाशी सत् की प्राप्ति हेतु कर्मयोग में लग जाता है ।
  • जो पुरुष कर्मयोग के द्वारा समत्व बद्धि से युक्त होकर अविनाशी सत् को प्राप्त कर लेता है , फिर वो त्रिगुणात्मक माया के आवरण से बने इस शरीर से मुक्त हो जाता है और फिर उसका बार – बार जन्म नहीं होता । वह पुरुष उसी अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश में अपने अविनाशी सत् के लघु अँश का विलय कर ईश्वर को प्राप्त कर लेता है।

भगवान के भाव को प्राप्त करने से मुक्ति मिलती है

भगवान का भाव क्या होता है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है। भगवान अविनाशी सत् के परम अँश हैं। उन्हें इस बात का भान है कि वो कौन हैं लेकिन जीव को इस बात का ज्ञान नहीं होता कि वो भी अविनाशी सत् का ही अँश है। जिस पुरुष को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि वह भी भगवान की तरह ही अविनाशी सत् ही है , वह भगवान के भाव को प्राप्त कर लेता है और मुक्ति के मार्ग पर कर्मयोग के द्वारा प्रवृत्त हो जाता है । इसके लिए समत्व बुद्धि से युक्त होना परम आवश्यक है ।  

 वीतरागभय क्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥
vītarāgabhayakrōdhā manmayā māmupāśritāḥ.
bahavō jñānatapasā pūtā madbhāvamāgatāḥ৷৷4.10৷৷ 

अर्थः-राग, भय और क्रोध से रहित , मुझमें ही ओत-प्रोत, मेरे ही आश्रित बहुत से पुरुष तत्वज्ञान रुपी तप से पवित्र होकर मेरे भाव को प्राप्त हो चुके हैं।

व्याख्याः- भगवान इस श्लोक में अर्जुन को कह रहे हैं कि मैंने  तुम्हें पहले कहा था कि यह कर्मोयोग आदिकाल से चला आ रहा है। अब भगवान कह रहे हैं कि इसी कर्मयोग के पालन के द्वारा बहुत से लोग मेरे भाव ( अर्थात अविनाशी सत् के प्रति ज्ञानलब्ध होना) को प्राप्त कर चुके हैं।

भगवान ने पहले भी अर्जुन को बताया था कि समत्व बुद्धि से युक्त होकर कर्मयोग वही कर सकता है जो इंद्रियों और इंद्रियों से उत्पन्न विषयों, जैसे , राग, द्वेष, हानि, लाभ जय पराजय आदि भय और क्रोध आदि को जीत चुका हो।

ऐसे पुरुष जो इन सब दुर्गुणों को जीत लेते हैं, वही समत्व भाव को उपलब्ध होते हैं। समत्व भाव अविनाशी सत् की प्राप्ति के लिए स्थिर हो चुका भाव है । कर्मयोग के द्वारा मनुष्य इसी भाव को प्राप्त होता है जो ईश्वर का भाव है। भगवान यहां बिना किसी का उदाहरण दिए हुए ही यह बता रहे हैं कि ऐसा पहले भी कई पुरुष कर चुके हैं और वो जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होकर अविनाशी सत् में विलीन हो चुके हैं।

भगवान इसी बात को गीता के अध्याय 14 के श्लोक 2 में भी कहते हैं कि –

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च।।14.2।। 

अर्थः-इस ज्ञान का आश्रय लेकर जो मनुष्य मेरी सधर्मता को प्राप्त हो गये हैं, वे महासर्ग में भी पैदा नहीं होते और महाप्रलय में भी व्यथित नहीं होते।

भज गोविंदम् भज गोविंदम्

भगवान ने पिछले श्लोक में कहा है कि जो समत्व बुद्धि से युक्त होकर कर्मयोग के द्वारा मुझ अविनाशी सत् के प्रति भावयुक्त हो जाते हैं वो जन्म- मरण के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। भगवान अब अर्जुन को कहते हैं कि –

ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्‌ ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥
yē yathā māṅ prapadyantē tāṅstathaiva bhajāmyaham.
mama vartmānuvartantē manuṣyāḥ pārtha sarvaśaḥ৷৷4.11৷৷ 

अर्थः- जो मुझको जैसे भजते हैं वैसे ही मैं उनको भजता हूँ। हे पार्थ ! मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।

व्याख्याः- ‘भज’ का अर्थ सेवा होता है । सेवा स्मरण , स्तुति या उपासना या किसी के प्रति प्रेम प्रदर्शन के कर्मों के द्वारा किया जाता है । भगवान कहते हैं कि जो मुझकों जैसे भजते हैं अर्थात जो मुझ अविनाशी सत् के प्रति जिस भाव से या कर्म से सेवा या कर्म करते हैं , वैसे ही मैं भी उनको भजता हूँ।

अविनाशी सत् के बृहदत्तम अँश ईश्वर और अविनाशी सत् के लघु अँश जीव दोनों के एक ही हैं। अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश का लक्ष्य अविनाशी सत् के लघु अँशों को अपने में विलीन कर उन्हें जन्म मरण के बंधन से मुक्त करना है । जब जीव को यह ज्ञान हो जाता है कि कि वह भी उसी अविनाशी सत् का अँश है जो अँश साकार ईश्वर के अंदर है, तब वह उसमें मिलने के लिए या उसका सामिप्य प्राप्त करने के लिए अपने ह्द्य जगत के अंदर स्मरण, उपासना आदि कर्म करता है। जैसे ही वह इन कर्मों को करने लगता है अर्थात भजन करने लगता है , वैसे ही ईश्वर भी उसे अपने में मिलाने के लिए उस जीव के प्रति स्मरण , उपासना आदि कर्म करता है ।

इसीलिए कहा गया है कि भगवान की तरफ अगर आप एक कदम उठाते हैं तो भगवान भी आपकी तरफ एक कदम उठाते हैं। ये कुछ ऐसा है जैसे दो चुंबकों में एक छोटा चुंबक अगर बड़े चुंबक की तरफ आकर्षित होता है तो बड़ा चुंबक भी उसकी तरफ आकर्षित होता है। न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण नियम के तहत ब्रह्मांड के सभी कण एक दूसरे की तरफ आकर्षित होते रहते हैं। इसी आकर्षण बल को गुरुत्वाकर्षण बल कहा जाता है । भगवान के प्रति जीव जब ‘भज’ अर्थात सेवा भाव से आकर्षित होता है तो भगवान भी ‘भज’ अर्थात सेवा भाव से जीव की तरफ आकर्षित होते हैं क्योंकि दोनों के अंदर एक ही अविनाशी सत् मौजूद होता है। चूंकि ईश्वर अविनाशी सत् का वृहदत्तम अँश हैं इसलिए जीव उन्हीं के मार्ग की तरफ खींचता दिखता चला जाता है, जिसे भगवान के मार्ग का अनुसरण भी कहा जाता है।

भगवान और देवता की उपासना में क्या अंतर है?

भगवान अविनाशी सत् के परम अँश हैं , जबकि देवता अविनाशी सत् के वृहद् अँश हैं और मनुष्य आदि प्राणी अविनाशी सत् के लघु अँश हैं। भगवान के पास सृष्टि की रचना, सृष्टि का संहार और जीवों को मुक्ति देने की शक्ति प्राप्त है । भगवान को यह ज्ञात है कि वो अविनाशी सत् के परम अँश हैं।

देवता अविनाशी सत् के वृहद अँश हैं जिन्हें भगवान ने त्रैगुणात्मक माया के आवरण में रख कर प्रगट किया है और उन्हें कुछ विशेष शक्तियां दी हैं। देवताओं के पास मनुष्यों के सकाम कर्मों के आधार पर उन्हें भौतिक और लौकिक वस्तुएं या इच्छित कामनाओं को पूर्ण करने की शक्ति होती हैं।

यज्ञों और अन्य उपासनाओं के द्वारा देवताओं को प्रसन्न कर राज्य सुख , स्वर्ग सुख और अन्य लौकिक सुखों की प्राप्ति की जा सकती है। लेकिन देवता किसी को मोक्ष नहीं दे सकते हैं। भगवान इसी तथ्य की तरफ इशारा करते हुए अर्जुन से कहते हैं कि –

काङ्‍क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥
kāṅkṣantaḥ karmaṇāṅ siddhiṅ yajanta iha dēvatāḥ.
kṣipraṅ hi mānuṣē lōkē siddhirbhavati karmajā৷৷4.12৷৷ 

अर्थः-लौकिक सकाम मनुष्य कर्मों की सिद्धि चाहते हुए यहां देवताओं की पूजा करते हैं, क्योंकि मनुष्य लोक में कर्म-जन्य सिद्धि शीघ्र मिल जाती है।

 व्याख्याः- भगवान यहां अर्जुन को यह बता रहे हैं कि इस लोक अर्थात पृथ्वी लोक में जो भी मनुष्य फल प्राप्ति के लिए देवताओं को समर्पित कर सकाम कर्म ( यज्ञ, पूजा, उपासना, व्रत आदि) करता है उसे देवता शीघ्र पूरा कर सकते हैं।

भगवान ने देवताओं की पूजा का निषेध नहीं किया है, बल्कि उससे प्राप्त होने वाले सीमित परिणामों के बारे में बताया है । लेकिन जो लोग अविनाशी सत् के परम अँश ईश्वर की निष्काम भाव से अर्थात समत्व बुद्धि से युक्त होकर कर्मयोग करते हैं उन्हें इन सीमित परिणामों से ज्यादा बढ़कर परिणाम की प्राप्ति होती है। यह परिणाम मोक्ष की प्राप्ति है अर्थात अविनाशी सत् के परम अँश ईश्वर में जीव रुपी अविनाशी सत् के लघु अँश का विलय हो जाता है । ऐसे कर्मयोग के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति के बाद मनुष्य जन्म और मरण से मुक्त हो जाता है।

चार वर्णों – ब्राह्म्ण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कैसे बने

वैसे तो चार वर्णों – ब्राह्म्ण, क्षत्रिय , वैश्य और शूद्रों की उत्पत्ति का पहला सिद्धांत ‘ऋग्वेद’ के ‘पुरुष सूक्त’ में मिलता है । इस सूक्त के अनुसार परम पुरुष के मुख से ब्राह्मणों, भुजाओं से क्षत्रियों , पेट और जंघा से वैश्यों और पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई है।

इसी सूक्त को यजुर्वेद, श्रीमद् भागवत और कई अन्य पुराणों में भी श्लोकों के द्वारा स्थापित किया गया है। लेकिन भगवान गीता में चारों वर्णों की उत्पत्ति का सिद्धांत पूर्व के सिद्धांतों से भिन्न  बताते हैं। भगवान कहते हैं कि

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌ ॥
cāturvarṇyaṅ mayā sṛṣṭaṅ guṇakarmavibhāgaśaḥ.
tasya kartāramapi māṅ viddhyakartāramavyayam৷৷4.13৷৷ 

अर्थः- गुण कर्म विभाग से चारों वर्ण( ब्राह्म्ण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) मेरे द्वारा रचे गए हैं। उनका कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी को तू अकर्ता ही जान ।

व्याख्याः- भगवान इस श्लोक में कई ऐसी बातों का निश्चय होता है । पहली बात, कि भगवान कहते हैं कि इन चारों वर्णों की सृष्टि मैंने की है । यह व्यवस्था स्वयं भगवान के द्वारा निर्मित है।

वर्ण व्यवस्था को लेकर विवाद

आमतौर पर आधुनिक वामपंथी, बहुजन विचारधारा और अंबेडकरवादी विचारकों के अनुसार चारों वर्णों की सृष्टि ब्राह्म्णों के द्वारा की गई है और यह एक शोषणमूलक व्यवस्था है जिसमें ब्राह्म्ण को सर्वोपरि स्थान दिया गया है , जबकि शूद्रों को सबसे नीचे स्थान दिया गया है ।

आधुनिक वामपंथी, बहुजन और अंबेडकरवादी विचारकों के अनुसार शूद्रों का सदियों से ब्राह्म्णों के द्वारा शोषण इसी आधार पर किया जाता रहा है । ‘मनु स्मृति’ के श्लोकों की गलत व्याख्या कर इन विचारकों के द्वारा आरोप लगाया गया है कि वर्ण व्यवस्था ही शोषण का मूल आधार है।

वर्ण व्यवस्था भगवान ने बनाई है

  • भगवान ‘गीता’ में स्पष्ट रुप से कहते हैं कि वर्ण व्यवस्था की सृष्टि मैंने खुद की है।
  • दूसरी बात, भगवान कहते हैं कि वर्णों का निर्माण जन्म से ही है लेकिन वह किसी वर्ण के परिवार विशेष में जन्म लेने के आधार पर नहीं है । वर्ण व्यवस्था जन्मना है न कि किसी जाति विशेष में जन्म लेने के संयोग से है।
  • तीसरी बात, भगवान वर्ण व्यवस्था के निर्माण की प्रक्रिया बताते हैं। वह कहते हैं कि चारो वर्णों( ब्राह्म्ण, क्षत्रिय , वैश्य और शूद्रों ) की सृष्टि गुण और कर्म के विभागों के आधार पर की गई है। ये गुण क्या हैं  इसे भी भगवान बताते हैं। ये गुण त्रिगुणात्मक अर्थात सत्, रज् और तम हैं।

जीव मृत्यु के बाद नया शरीर कैसे धारण करता है?

गीता के अनुसार अविनाशी सत् जब किसी त्रिगुणात्मक माया के आवरण से बने शरीर की मृत्यु के बाद उसे छोड़ता है तो उसके साथ एक सूक्ष्म शरीर भी जाता है जो कर्मों से बना होता है । अविनाशी सत् उस कर्मों से लिप्त सूक्ष्म शरीर के साथ जब पुराने शरीर को छोड़ता है तो वो त्रिगुणात्मक माया के आवरण से बने एक नए शरीर को तलाश करता है।

जैसा कि हमने आपको पहले भी बताया है कि त्रिगुणात्मक माया को अंगीकार कर अविनाशी सत् का परम अँश साकार ईश्वर का रुप धारण करता है और वो अविनाशी सत् के लघु अँशों को त्रिगुणात्मक माया ( सत्, रज और तम) के आवरण में रख कर नए जीवों की सृष्टि करता है ।

 ईश्वर जब किसी अविनाशी सत् के लघु अँश के द्वारा किसी स्थूल शरीर की मृत्यु के बाद कर्मों से लिप्त सूक्ष्म शरीर के रुप में त्याग करते देखता है तो वह उसके लिए त्रिगुणात्मक आवरण( सत्, रज और तम) से युक्त नए शरीर की सृष्टि करता है । इस नए शरीर की सृष्टि ईश्वर कर्मों से लिप्त उस सूक्ष्म शरीर के पुराने कर्मों को देख कर करता है ।

ब्राह्म्ण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र शरीरों का निर्माण

अगर कोई अविनाशी सत् के लघु अँश के कर्मों से लिप्त सूक्ष्म शरीर में पूर्व में किये गए सात्विक कर्मों की अधिकता होती है तो ईश्वर उसके लिए जो त्रिगुणात्मक माया से शरीर का निर्माण करता है, उसमें सात्विक गुणों की अधिकता होती है और वह अविनाशी सत् का लघु अँश अपने पूर्व सात्विक कर्मों से लिप्त सूक्ष्म शरीर के साथ प्रवेश कर ब्राह्म्ण वर्ण के रुप में जन्म लेता है

अगर अविनाशी सत् के लघु अँश के साथ लिप्त सूक्ष्म शरीर में पूर्व जन्म में किए गए रजस कर्मों की अधिकता होती है तो ईश्वर उसे रजस गुणों की अधिकता से युक्त शरीर प्रदान करते हैं और वह क्षत्रिय के गुणों से युक्त शरीर को धारण करता है । ऐसे जीव में क्षत्रिण गुणों की अधिकता होती है और वह युद्ध आदि कर्मों में लिप्त होता है ।

यदि, रजस और तमस कर्मों का समान मिश्रण उस सूक्ष्म शरीर के साथ पाया जाता है तो ईश्वर उस अविनाशी सत् के लघु अँश को वैश्य वर्ण का शरीर प्रदान करता है और उसकी प्रवृत्ति व्यापार आदि सांसारिक कर्मों में होती है। यदि तामसिक कर्मों की अधिकता हो तो ईश्वर अविनाशी सत् के लघु अँश को तामसिक गुणों से युक्त शरीर देता है जिसे शूद्र शरीर कहते हैं। इसमें नीच कर्मों की अधिकता पाई जाती है। ऐसा शूद्र शरीर किसी ब्राहम्ण पुरुष के यहां भी जन्म ले सकता है । इसी प्रकार ब्राह्म्ण शरीर किसी शूद्र पुरुष के यहां भी जन्म ले सकता है ।

इसका अर्थ यह है कि गुण तीन हैं- सत्, रज और तम जबकि कर्म अविनाशी सत् के लघु अँश के साथ मृत्यु के बाद सूक्ष्म शरीर के रुप में स्थूल शरीर से बाहर निकलते हैं और ईश्वर उनके पूर्व के कर्मों को देखकर त्रिगुणात्मक सत्, रज और तम से विभागों के आधार पर वर्ण के रुप में नया शरीर देते हैं। इस श्लोक से पूर्व जन्म के कर्मों का अगले जन्म में स्थानांतरण सिद्ध होता है और प्रारब्ध कर्मों के सिद्धांत को भी सही ठहराया गया है।

भगवान के लिए सब बराबर हैं

भगवान यह भी कहते हैं कि इन वर्णों के रचयिता होते हुए भी किसी भी प्रकार के मोह या पक्षपात भाव से युक्त नहीं होते हैं क्योंकि वो जानते हैं कि वह अविनाशी सत् के परम अँश ईश्वर हैं । वो इस कर्म को करने के बाद भी इसमें किसी प्रकार के मोह , वैर आदि भावो से लिप्त नहीं होते और वो इसे निष्काम भाव से करते हैं  । इसलिए वो कर्म करते हुए भी अकर्ता हैं।

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥
na māṅ karmāṇi limpanti na mē karmaphalē spṛhā.
iti māṅ yō.bhijānāti karmabhirna sa badhyatē৷৷4.14৷৷ 

अर्थः- न तो कर्म मुझे लिप्त करते हैं और न ही मेरी लालसा कर्म फल में है। इस प्रकार जो मुझे जानता है वह कर्मों से नहीं बंधता है।

व्याख्याः- भगवान कहते हैं कि यद्यपि मैं ही जीवों की रचना का कर्म करता हूं लेकिन मुझे ये कर्म लिप्त नहीं करते क्योंकि मेरी कोई लालसा कर्म के फल में नहीं है अर्थात् भगवान किसी मोह, लोभ या किसी जीव विशेष के कर्मों के प्रति आसक्त नहीं होते । वो बस निस्पृह भाव से जिस जीव के जैसे कर्म हैं उसके आधार पर ही उसे  त्रिगुणात्मक माया से आवरण से युक्त शरीर प्रदान करते हैं।

भगवान यह जानते हैं कि वो अविनाशी सत् के परम अँश हैं। जो जीव यह जान लेता है कि वो भी उसी अविनाशी सत् का अँश है वो भी ईश्वर के इस कर्म के प्रति किसी प्रकार की आसक्ति या विरक्ति , वैर या लोभ का भाव नहीं रखता है। वह जीव भी यही मानता है कि ईश्वर ने जो उसे नया शरीर दिया है वह उसी के पूर्व कर्मों के आधार पर है।

जो जीव इस तत्त्व को जान लेता है , वह भी किसी कर्म में नहीं बंधता है और उसके सारे कर्म अविनाशी सत् के परम अँश या ईश्वर की प्राप्ति की तरफ लग जाते हैं और वो समत्व बुद्धि से युक्त होकर कर्मयोग में प्रवृत्त हो जाता है।

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्‌ ॥
ēvaṅ jñātvā kṛtaṅ karma pūrvairapi mumukṣubhiḥ.
kuru karmaiva tasmāttvaṅ pūrvaiḥ pūrvataraṅ kṛtam৷৷4.15৷৷ 

अर्थः- पहले मुमुक्ष  पुरुषों के द्वारा भी इस प्रकार जान कर कर्म किया जा चुका है । अतएव तू भी पूर्वजों के द्वारा पूर्वकाल में किए जाने वाले कर्मों को ही कर ।

व्याख्याः- भगवान ने पहले भी अध्याय 2 और 3 में अर्जुन को समत्व बुद्धि से युक्त होकर कर्मयोग में प्रवृत्त होने के लिए कहा है । भगवान एक बार फिर यही करने के लिए कह रहे हैं।

भगवान कहते हैं कि जिस प्रकार पूर्व काल से ज्ञानियों या मुमुक्ष पुरुषों ने इस सत्य को जान लिया कि ईश्वर की तरह ही कर्मों में लिप्त हुए बिना कर्मयोग कर अविनाशी सत् की प्राप्ति के लिए कर्मयोग का आश्रय लेना चाहिए , वैसा ही अर्जुन भी कर्म करे। अगर अर्जुन पूर्वकाल में ऐसे पूर्वजों ( वामदेव, ध्रुव, राजर्षियों, वशिष्ठ आदि ) की राह पर चले और समत्व बुद्धि से कर्मों में बिना किसी जय -पराजय, लाभ -हानि, लोभ-मोह में लिप्त हुए कर्मों को करेगा तो वह भी अविनाशी सत् के परम अँश यानि ईश्वर में अपने अंदर स्थित अविनाशी सत् के लघु अँश को विलीन कर कर्मबंधनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त कर लेगा ।

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