marudgana

सनातन धर्म मे मरुत और मरुत गण या मरुद्गण कौन हैं, What is marudgana ?

वेदों से लेकर पुराणों तक में 7 मरुतों के नाम लगभग समान ही हैं जो इस प्रकार हैं –आवह, प्रवह, संवह, उद्वह, विवह, परिवह और परावह, ये सभी तीनों लोकों में अलग- अलग दिशाओं में भ्रमण करते रहते हैं । इन हर मरुतों के गण या मरुद्गण ( मरुत गण) अलग- अलग दिशाओं में अपने स्वामियों के कार्य करते हैं।

वैदिक देवताओं में इंद्र, वरुण, मित्र, सूर्य आदि देवताओं के अलावा भी उनके कई सहायक देवताओं का भी वर्णन है, जो सृष्टि के संचालन में इंद्र, वरुण और सूर्य आदि की सहायता करते रहते हैं। इन लघु देवताओं में विश्वदेवों, पूषण, अश्विनी कुमारों (जो जुड़वां भाई जो एक प्रकार के चिकित्सक हैं) और मरुत गण या मरुद्गण शामिल हैं।

मरुत् गणों को विशेषकर इंद्र का सहयोगी माना गया है और उन्हें तीनों लोको में विद्युत की तरह चमकने वाले देवताओं की श्रेणी में रखा गया है । मरुत् गणों का कार्य मेघों में विद्युत उत्पन्न करना, मेघों मे गर्जन उत्पन्न करना, इंद्र के साथ गायों की खोज करना तथा युद्ध मे इंद्र की सहायता करना था। आकाश में जो बिजली चमकती है वह मरुत गणों का हथियार है। पृथ्वी पर सुवर्ण के अंदर जो चमक होती है वह मरुत गणों के ही द्वारा होती है ।

सनातन धर्म में 49 मरुत गणों का क्या स्थान है

मरुत गण या मरुद्गण, वैदिक ग्रंथों से लेकर पौराणिक ग्रंथों में गण देवताओं के रुप में प्रसिद्ध हैं जिनकी उत्पत्ति, इनकी संख्या औऱ इनके कार्यों को लेकर हमेशा असमंजस की स्थिति रही है। जहां वेदों में इनकी संख्या 60 की तिगुणी अर्थात 180 तक बताई गई है, वहीं वाल्मीकि रामायण और श्री मद् भागवत पुराण आदि में इनकी संख्या 49 बताई गई है ।

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि मरुत अलग हैं और मरुद्गण या मरुत गण उनके सहायक गण हैं। मरुतों की संख्या आमतौर पर 7 ही मानी गई है जबकि हरेक मरुत के पीछे 7 गणों के साथ मरुत गणों या मरुद्गणों की संख्या 49 तक है। यह एक प्रकार से एक लघु सैन्य टुकड़ी की तरह थी जिसमें हरेक मरुत के पीछे 7 सैनिक होते थे।

मरुत रथों पर चलते थे जो घोड़ों के बिना चलने वाले रथ थे। कई बार मरुतों को विमानों पर भी चलते हुए दिखाया गया है। मरुतों के बारे में कहा गया है कि वो कभी थकते नहीं हैं और लगातार तीनों लोकों में भ्रमण कर सकते हैं।

मरुत गणों या मरुद्गणों की उत्पत्ति

वेदों में विशेषकर ऋग्वेद में मरुतों को रुद्र और पृश्नि का पुत्र कहा गया है और मरुतों को रुद्रियाः भी कहा गया है। मरुतों को उनकी माता के नाम पर कई बार पृश्निमातरः से भी संबोधित किया गया है। लेकिन वाल्मीकि रामायण के काल तक आते- आते मरुतों की उत्पत्ति को लेकर एक निश्चित कथा सामने आई।

इसी कथा को श्रीमद् भागवत पुराण, वामन पुराण और अन्य कई पुराणों में भी यथारुप दोहराया गया है। इसलिए यह माना जा सकता है कि वाल्मीकि पुराण में मरुतों के जन्म की जो कथा है वो वेदों में उल्लिखित उनके माता पिता से  भले ही थोड़ी अलग है, लेकिन ज्यादा गहराई से लिखी गई है।

वाल्मीकि रामायण में मरुतों के जन्म की कथा

वाल्मीकि रामायण के बालकांड के सर्ग 45 में ऋषि विश्वामित्र जी जब श्रीराम और लक्ष्मण को समुद्र मंथन की कथा सुनाते हैं तो बताते हैं कि समुद्र मंथन से निकले अमृत को पीकर देवताओं ने बड़ी संख्या में दैत्यों का वध कर दिया। वाल्मीकि रामायण के बालकांड के सर्ग 46 में ऋषि विश्वामित्र माता दिति और इंद्र के बीच शत्रुता और मरुतों की उत्पत्ति की कथा सुनाते हैं। कथा यह है कि ब्रह्मा के पौत्र ऋषि कश्यप की 14 पत्नियों में दो पत्नियां सबसे महत्वपूर्ण मानी गई हैं। पहली हैं देवमाता अदिति और दूसरी हैं दैत्यों की माता दिति।

देवमाता अदिति और दैत्य माता दिति की शत्रुता

देवमाता अदिति से 12 आदित्यों या देवताओं की जन्म हुआ है जो इंद्र, वरुण, सूर्य, मित्र, धाता, वामन आदि हैं । वहीं माता दिति के गर्भ से हिरण्यकश्यप, हिरण्याक्ष और पुत्री सिंहिका का जन्म हुआ। माता अदिति के देवता पुत्रों औऱ माता दिति के दैत्य पुत्रों में हमेशा शत्रुता रही है।हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप से उत्पन्न दैत्यों को समुद्र मंथन के बाद देवताओं ने जब मार डाला तो दैत्यों की माता अदिति बहुत क्रोधित हुईँ। वो अपने पति ऋषि कश्यप के पास गईं और उन्होंने एक ऐसे पुत्र की कामना की जो दैत्यों का वध करने वाले इंद्र का ही वध कर सके –

हतपुत्रास्मि भगवंस्तव पुत्रैर्महाबलैः |
शक्रहन्तारमिच्छामि पुत्रं दीर्घतपोऽर्जितम् ||१-४६-२

अर्थः- हे भगवन् ( पति कश्यप) आपकी पत्नी अदिति से उत्पन्न आपके पुत्रों ने मेरे दैत्य पुत्रों का वध कर दिया  है। मैं अपनी तपस्या के द्वारा आपसे एक ऐसा पुत्र चाहती हूं जो इंद्र (शक्र) का वध कर सके।

साहं तपश्चरिष्यामि गर्भं मे दातुमर्हसि |
ईश्वरं शक्रहन्तारं त्वमनुज्ञातुमर्हसि || १-४६-३

अर्थः- दिति ने कहा कि मैं तपस्या के द्वारा ऐसा पुत्र प्राप्त करना चाहती हूं जो इंद्र का वध कर तीनों लोकों का शासक भी बन सके । मैं आपसे ऐसी तपस्या शुरु करने के लिए आदेश चाहती हूं और आप मुझे ऐसे पुत्र के लिए गर्भवती करें।

माता दिति की महान तपस्या : ऋषि कश्यप ने माता दिति को इस तपस्या के लिए अनुमति देते हुए कहा कि –

एवं भवतु भद्रं ते शुचिर्भव तपोधने |
जनयिष्यसि पुत्रं त्वं शक्रहन्तारमाहवे ||१-४६-५

अर्थः- तथास्तु देवी ! अगर तुम अपनी तपस्या में सफल रहती हो तो निश्चय ही ऐसे पुत्र को जन्म दोगी, जो युद्ध में इंद्र का वध कर सकेगा।

इसके बाद ऋषि कश्यप ने यह भी कहा कि –

पूर्णे वर्षसहस्रे तु शुचिर्यदि भविष्यसि |
पुत्रं त्रैलोक्यहन्तारं मत्तस्त्वं जनयिष्यसि ||१-४६-६

अगर 1000 साल तक पूरी पवित्रता से तपस्या करने में सफल रहोगी तो निश्चय ही तुम्हें ऐसे पुत्र की प्राप्ति होगी जो तीनों लोकों का शासक बनेगा।

दिति के पास इंद्र की सेवा के लिए प्रस्तुत होना

दैत्य माता दिति ने तपस्या शुरु कर दी और वो गर्भवती भी हो गईं। इंद्र को जैसे ही यह पता चला , वह माता दिति के पास पहुंचे और उन्होंने माता दिति से यह प्रार्थना की कि वो उन्हें अपनी सौतेली माता या मौसी की सेवा का अवसर दें।माता दिति का ह्द्य इतना विशाल था कि उन्होंने इंद्र को अपनी सेवा का मौका दे दिया इंद्र लगातार माता दिति की तपस्या के लिए यज्ञ की लकड़ियां लाते, नदी से जल लेकर आते और रोज उनके चरण दबाते ।

माता दिति के द्वारा इंद्र को अभयदान

माता दिति की लगातार सेवा करने से इंद्र और माता दिति के बीच की शत्रुता समाप्त हो गई और माता दिति उन्हें अपने पुत्र की तरह मानने लगीं। एक दिन जब इंद्र माता दिति के पैर दबा रहे थे तब माता दिति ने उन पर प्रसन्न होकर कहा कि –

तपश्चरन्त्या वर्षाणि दश वीर्यवतां वर |
अवशिष्टानि भद्रं ते भ्रातरं द्रक्ष्यसे ततः ||१-४६-१३

अर्थः- हे वीरों के वीर पुत्र इंद्र ! जल्द ही मेरी तपस्या पूर्ण होने वाली है, जल्द ही तुम्हारे भाई का जन्म होने वाला है। तुम चिंता न करो वह तुम्हारा वध नहीं करेगा और तुम सुरक्षित रहोगे।

इस प्रकार माता दिति ने इंद्र के प्रति अपनी शत्रुता का त्याग कर दिया और उनके अंदर बदले की इच्छा समाप्त हो गई । माता दिति ने इंद्र को कहा कि –

यमहं त्वत्कृते पुत्र तमाधास्ये जयोत्सुकम् |
त्रैलोक्यविजयं पुत्र सह भोक्ष्यसि विज्वरः || १-४६-१४

अर्थः मेरा जो पुत्र पैदा होने वाला है वह तुम्हारा सहयोगी होगा शत्रु नहीं और वो तीनों लोकों में तुम्हारे युद्धों में तुम्हारी सहायता करेगा।

इंद्र के द्वारा माता दिति के गर्भ को नष्ट करने का प्रयास

माता दिति ऐसा कहने के बाद तपस्या की थकान की वजह से घोर निद्रा में चली गईँ। इंद्र उनके पैरों की मालिश कर ही रहे थे कि, उन्होंने देखा कि गर्भवती माता दिति के सिर के बाल उनके पैरों से छू रहे हैं और उनकी तपस्या इस अपवित्र आचरण से भंग हो गई है। इंद्र को इसके बाद अवसर मिल गया और वो माता दिति के गर्भ के अंदर प्रवेश कर गए और अपने वज्र से गर्भस्थ शिशु के सात टुकड़े कर दिये।

जब इंद्र इस गर्भस्थ शिशु के सात टुकड़े कर रहे थे तो इन मांस पिंडो से रोने की आवाज आने लगी और वे शिशु कहने लगे कि ‘मुझे मत मारो’।  इंद्र घबरा गए और इन मांस पिंडो से कहने लगे कि “मत रोओ …मत रोओ”..!!!

मा रुदो मा रुदश्चेति गर्भं शक्रोऽभ्यभाषत |
बिभेद च महातेजा रुदन्तमपि वासवः || १-४६-२०

अर्थः- मत रोओ! मत रोओ!  इंद्र लगातार उन भ्रूणों से कह रहे थे ,लेकिन वे सातो भ्रूण जोर जोर से रो रहे थे ।

इतने में माता दिति की नींद खुल गई और इंद्र को ऐसा करते देख वो भी रोते हुए कहने लगी कि मेरे भ्रूण को मत मारो !

न हन्तव्यं न हन्तव्यमित्येवं दितिरब्रवीत् |
निष्पपात ततः शक्रो मातुर्वचनगौरवात् ||१-४६-२१

अर्थः- दिति इंद्र से कहती हैं कि मेरे भ्रूण को मत मारो। ऐसा सुन कर इंद्र माता दिति के गर्भ से बाहर आते हैं।

माता दिति के द्वारा इंद्र को क्षमादान

प्रांजलिर्वज्रसहितो दितिं शक्रोऽभ्यभाषत |
अशुचिर्देवि सुप्तासि पादयोः कृतमूर्धजा|| १-४६-२२

अर्थः- इंद्र माता दिति से क्षमा मांगते हुए कहते हैं कि आप अपनी तपस्या के दौरान अपवित्र हो गई थीं ,इसीलिए अवसर देख कर मैंने यह कार्य किया। आप मुझे क्षमा करें।

माता दिति जिनके गर्भ को इंद्र ने नष्ट करने का प्रयास किया था, वो एक महान स्त्री थीं। उन्होंने इंद्र पर दोषारोपण करने की बजाय खुद की गलती मान ली और इंद्र को क्षमा कर दिया –

ममापराधाद्गर्भोऽयं सप्तधा शकलीकृतः |
नापराधो हि देवेश तवात्र बलसूदन || १-४७-२

अर्थः- हे बल नामक दैत्य का वध करने वाले इंद्र ! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। मेरे गर्भ के जो सात टुकड़े हो गए हैं वो तुम्हारी वजह से नहीं हुए बल्कि वो मेरी अपवित्रता की वजह से हुए हैं।

माता दिति के द्वारा मरुतों का जन्म

माता दिति ने अपने भ्रूण के सात टुकड़े होने के बावजूद इंद्र से यह आग्रह किया कि वो शत्रुता को समाप्त कर दें और जन्म लेने वाले बच्चों को अपना भाई बना कर उन्हें भी देवताओं की श्रेणी प्रदान करें –

प्रियं त्वत्कृतमिच्छामि मम गर्भविपर्यये |
मरुतां सप्तसप्तानां स्थानपाला भवन्तु ते || १-४७-३
त्वत्कृतेनैव नाम्ना वै मारुता इति विश्रुताः

भावार्थः माता दिति ने इंद्र से कहा कि इन 7 भ्रूणों से सात पुत्र पैदा होंगे जिन्हें मत रोओ.. मत रोओ कहने की वजह से मरुत के नाम से जान जाएगा। मैं तुमसे आग्रह करती हूं कि मेरे इन पुत्रों को तुम देवताओं की श्रेणी में रखो और इन्हें सात लोकों का स्वामी बना दो। इंद्र ने माता दिति को मरुतों को सात लोकों में गमन करने वाले देवता के रुप में मान्यता देने की बात मान ली।

इस प्रकार मरुतों का जन्म हुआ। प्रत्येक मरुत के साथ 7 गणों की सेना बनाई गई और ये मिलकर 49 मरुत गण या मरुद्गण बन गए। ऐसी ही कथा श्रीमद् भागवत पुराण और वामन पुराण और अन्य ग्रंथों में भी मिलती है । 

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