देवशयनी एकादशीः विष्णु के सोने और हमारे जागने का पर्व

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी के दिन देवशयनी एकादशी का महापर्व भगवान श्री हरि विष्णु के योगनिद्रा में जाने का दिवस है आज से ठीक चार महीने तक भगवान विष्णु शयन करते हैं अर्थात सोते हैं। भगवान विष्णु क्षीरसागर में चार महीने भगवान शेषनाग के उपर शयन करते हैं । क्षीरसागर का स्थान शकद्वीप के चारों ओर बताया गया है। भगवान विष्णु का निवास स्थान भी क्षीरसागर ही है ।

भगवान विष्णु समुद्र में शयन क्यों करते हैं?

भगवान विष्णु का एक नाम नारायण भी है । नारायण शब्द ‘नार’ और ‘अयन’ से मिल कर बना है।‘नार’ का अर्थ होता है जल अर्थात पानी और ‘अयन’ का अर्थ होता है निवास करना । इसलिए नारायण वो हैं जो जल में निवास करते हैं। इसीलिए भगवान विष्णु क्षीरसमुद्र में वास करते हैं।

सृष्टि के निर्माण से जुड़ा है देवशयनी एकादशी

इसके अलावा नारायण को ही ऋग्वेद में उल्लिखित विराट पुरुष के रुप में माना जाता है जिनसे हमारी सृष्टि का उद्भव हुआ है। ऐसा माना जाता है कि भगवान प्रलय के बाद एकार्णव जल में शयन करते हैं और उन्हीं के शरीर में सारी सृष्टि का लय हो जाता है या फिर सारी सृष्टि समा जाती है। काल बीतने पर विराट पुरुष से ब्रह्मा जी का उद्भव होता है और वो विराट पुरुष के अंदर स्थित प्रलय से पहले की सृष्टि को निकाल कर एक नई सृष्टि का निर्माण करते है।

भगवान सो जाते हैं तो संसार में जागता कौन है?

भगवान के सोने का अर्थ ये नहीं है कि संसार का पालन कार्य खत्म हो जाता है और संसार नष्ट हो जाता है। बल्कि जब संसार एक लय में चलने लगता है तो आद्या शक्ति (दशपदी महाकाली) उन्हें योगनिद्रा के वशीभूत कर देती हैं और संसार के पालन का कार्य अपने हाथों में ले लेती है। अब संसार में शक्ति का शासन शुरु हो जाता है । इसीलिए देवशयनी एकादशी से लेकर देवोत्थान एकादशी के बीच देवियों के त्योहार मनाए जाते हैं।

आद्या शक्ति के संसार को अपने वश में करने का अर्थ संसार का माया के अधीन हो जाना है। ऐसे में यह वक्त हमारे सोने का नहीं बल्कि अपनी आत्मा को जागृत करने का मौका है क्योंकि ऐसे वक्त में हम माया के प्रभावों से बच कर अपनी आत्मा के शुद्धिकरण के लिए प्रयास कर सकते हैं और विष्णु के जागते ही हम उनकी शरण में वापस चले जा सकते हैं।

इसीलिए इस अवधि में हमें अपने विवेक को जागृत रखना चाहिए ताकि हम कार्तिक शुक्ल पक्ष के देवोत्थान एकादशी के दिन जब भगवान श्री हरि विष्णु अपनी योगनिद्रा से वापस लौटें तो हमारे पास पुण्य की मात्रा ज्यादा हो।

देवशयनी एकादशी और ज्योतिष का रिश्ता

ज्योतिषशास्त्र  के मुताबिक भी जब सूर्य मिथुन राशि (यह राशि काम या माया के जागरण की राशि है) में प्रवेश करते हैं तो श्री हरि विष्णु योगनिद्रा में चले जाते हैं। चार महीने बाद जब सूर्य तुला राशि( तुला राशि के स्वामी शनि हैं जो धर्मराज भी कहे जाते हैं और हमारे पाप और पुण्य का फैसला करते हैं) में प्रवेश करते हैं तो देवोत्थान एकादशी के दिन भगवान अपनी योग निद्रा का त्याग करते हैं।

इसी लिए देवशयनी एकादशी के बाद के चार महीनों में हमें माया से बच कर ईश्वर अराधना में लगाना चाहिए ताकि जब सूर्य अर्थात आदित्य अर्थात विष्णु तुला राशि में प्रवेश करें तो हमारे न्याय के हिस्से में पुण्य ही रहे।

चतुर्मास के प्रारंभ का उद्घोष है देवशयनी एकादशी

देवशयनी एकादशी के साथ ही चतुर्मास का प्रारंभ हो जाता है । इसके साथ ही अगले चार महीनें तक सभी सांसारिक जगत में होने वाले शुभ कार्यों को स्थगित कर दिया जाता है और ऋषि,मुनि और तपस्वी एक स्थान पर ठहर कर वर्षा ऋतु के ये चार महीने चिंतन मनन और साधना करते हैं।

एक स्थान पर स्थिर होने का तात्पर्य अपनी साधना को बलवान बनाना भी है। आंतरिक जगत में एक ही स्थान पर ठहर जाने का उद्धेश्य साक्षी भाव को प्राप्त करना है । इसीलिए चतुर्मास की अवधि सभी पुण्य आत्माओं के लिए महत्वपूर्ण है।

यह एक भ्रम है कि देवशयनी एकादशी से देवोत्थान एकादशी के बीच का वक्त शुभ कार्यों के लिए नहीं है। इसका अर्थ सिर्फ यह है कि इस दौरान सांसारिक जगत में किये जाने वाले शुभ कार्य जैसे विवाह आदि नहीं किए जाने चाहिए और संसार से मुड़ कर आतंरिक जगत के उत्थान के लिए दैविक कार्य किए जाने चाहिए।

देवशयनी एकादशी का एक वैज्ञानिक पहलू भी है

सनातन धर्म के लगभग सभी पर्व किसी न किसी वातावरणीय या कृषि आदि गतिविधियों से वैज्ञानिक रुप से जुड़े हुए हैं। कोई भी पर्व अनायास नहीं मनाया जाता है। अगर होली फसलों के तैयार होने का पर्व है तो मकर संक्रांति नए अन्न के पहले दानों के आने का पर्व है ।

देवशयनी एकादशी के साथ भी चतुर्मास यानि वर्षा ऋतु का आधिकारिक प्रवेश माना जाता है । इस दौरान एक स्थान पर ठहरने का उद्धेश्य कई बीमारियों से बचाता भी है । इस दौरान बादलों की वजह से सूर्य की रौशनी धरती पर कम पहुंच पाती है। इस कारण धरती पर कई प्रकार के कीड़े मकोड़ों का जन्म होता है जो स्वास्थ के लिए हानिकारक होते हैं। इस दौरान कई प्रकार की  सब्जियों और फलों में भी कीड़े- मकोड़े पाये जाते हैं ।यही कारण है कि देवशयनी एकादशी के बाद के चार महीनों में कई आवागमन और खान पान में कई प्रकार के निषेध लगाये गए हैं।

ब्रम्हा और शिव भी करते हैं शयन

केवल भगवान विष्णु ही शयन नहीं करते बल्कि वर्ष के चार- चार महीने ब्रम्हा, विष्णु और शिव तीनों योग निद्रा में चले जाते है। भगवान विष्णु जहां देवशयनी से लेकर देवोत्थान एकादशी तक शयन करते हैं वहीं भगवान शिव देवोत्थान एकादशी से लेकर महाशिवरात्री तक समाधि में रहते हैं और महाशिवरात्रि से लेकर देवशयनी एकादशी तक के चार महीनों में ब्रम्हा शयन करते हैं।

इसका अर्थ यह है कि संसार में तीनों देवों में एक साथ एक वक्त में दो देव ही सक्रिय भूमिका में रहते हैं। देवशयनी एकादशी से देवोत्थान एकादशी के बीच अगर भगवान विष्णु शयन करते हैं तो संसार का कार्य भार भगवान शिव और ब्रहमा जी संभालते हैं। देवोत्थान एकादशी से महाशिवरात्रि के दौरान ब्रम्हा जी निष्क्रिय हो जाते हैं और विष्णु जी जाग कर भगवान शिव के साथ संसार का कार्य भार संभालते हैं।

वहीं महाशिवरात्रि की रात भगवान शिव समाधि में चले जाते हैं और देवशयनी एकादशी तक समाधि में ही रहते हैं। महाशिवरात्रि की रात ब्रम्हा जी सक्रिय हो जाते हैं। इस दौरान भगवान विष्णु और ब्रम्हा जी संसार का कार्य अपने उपर ले लेते हैं।

बाइबिल और कुरान में भी ईश्वर के शयन की है संकल्पना

केवल सनातन धर्म ही नहीं दूसरे धर्मों में भी है ईश्वर के आराम करने की बात। बाइबिल और कुरान दोनों के मुताबिक अल्लाह या गॉड ने जब संसार बनाया तो संसार बनाने का ये कार्य उन्होंने छह दिन में किया और सातवें दिन अल्लाह या ईश्वर ने आराम किया।

 फर्क बस इतना है कि बाइबिल और कुरान सप्ताह के सातवें  दिन को आराम का दिन बताते हैं जबकि सनातन धर्म के मुताबक त्रिदेव चार-चार महीने के अंतराल पर योगनिद्रा में जाते हैं। जैन धर्म और बौद्ध धर्मों में भी आषाढ शुक्ल पक्ष एकादशी से ही चतुर्मास करने की परंपरा रही है।

मानवाधिकार का महापर्व है देवशयनी एकादशी

अक्सर सनातन धर्म पर छुआछूत और दलितों के साथ भेदभाव का आरोप लगता रहा है । लेकिन पौराणिक कथा के मुताबिक जब सतयुग में चक्रवर्ती सम्राट मंधाता के राज्य में तीन वर्ष तक अकाल पड़ गया तो वो ऋषि अंगिरा के पास गये। ऋषि अंगिरा ने उनकी परीक्षा लेने के लिए कहा कि उनके राज्य में एक शूद्र वेदों की शिक्षा प्राप्त कर रहा है और तपस्या भी कर रहा है । अगर राजा उसको दंड दे दे तो अकाल समाप्त हो जाएगा।

राजा ने कहा कि किसी निरपराध शूद्र को शिक्षा या तपस्या से वंचित करना अपराध है और ये अपराध उनसे नहीं हो पायेगा। तब ऋषि ने प्रसन्न होकर राजा को देवशयनी एकादशी का व्रत करने के लिए कहा । राजा ने यह व्रत किया और राज्य अकाल से मुक्त हो गया। यहां एक चक्रवर्ती सम्राट को किस तरह अपनी प्रजा को बराबरी और भेदभाव के बिना देखना चाहिए यही शिक्षा दी गई है।

दैत्यराज बलि से जुड़ा है देवशयनी एकादशी का व्रत

  • जब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर राजा बलि से तीन पग मांग कर पूरा विश्व नाप दिया तो राजा बलि से वरदान मांगने को कहा । दैत्यराज ने कहा कि भगवान विष्णु नित्य उनके साथ रहे ।
  • तब महामाया मां लक्ष्मी संसार के सुचारु रुप से संचालन के लिए आगे आईं और उन्होंने राजा बलि को अपना भाई बना कर राखी बांध दी। बदले में बलि से उन्होंने वापस विष्णु को मांग लिया।
  • इसके बाद भी भगवान ने बलि को वरदान देते हुए कहा कि वो देवशयनी एकादशी से लेकर देवोत्थान एकादशी तक के चार महीनें सुतल लोक में उनके साथ ही निवास करेंगे और बाकि के चार-चार महीनें भगवान शिव और ब्रम्हा राजा बलि के साथ रहेंगे।
  • इस पर्व को पद्मा एकादशी भी कहा जाता है और अच्छी वर्षा के लिए भी गृहस्थों के यह व्रत करना चाहिए ताकि उनके घर धन्य धान्य की कमी ना रहे ।
  • पद्म पुराण, भविष्यत् पुराण, हरिवंश पुराण के अलावा महाभारत में भी इस व्रत की महिमा बताई गई है। ब्रम्हवैवर्त पुराण में भी इस व्रत की महिमा गाई गई है और कहा गया है कि इस व्रत को करने से सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published.

Translate »