संसार के सभी धर्मों में सृष्टि की उत्पत्ति का सिद्धांत दिया गया है। बाइबल के ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ में तथा पवित्र ‘कुरान’ में परमेश्वर या अल्लाह के द्वारा सृष्टि की रचना बताई गई है। लेकिन सृष्टि से पहले क्या था, यह हमें सिर्फ ऋ्ग्वेद के दशम मंडल के ‘नासदीय सूक्त'(Nasadiya Sukta) में मिलता है। सृष्टि कैसे बनी ये तो सभी धर्मों के ग्रंथों में मिलता है ,लेकिन सृष्टि के पहले क्या था ये सिर्फ हिंदू धर्म के महान ग्रंथों खासकर वेदों और पुराणों में ही मिलता है।
Table of Contents
ऋग्वेद के अनुसार सृष्टि की रचना क्या ईश्वर ने की ?
ऋग्वेद का ‘नासदीय सूक्त’ उस स्थिति की कल्पना करता है, जब कुछ भी नहीं था (When there was nothing), किसी भी वस्तु का कोई अस्तित्व नहीं था। ऋग्वेद उस स्थिति की कल्पना करता है, कि अगर कुछ नहीं था तो क्या था? किससे इस सारे संसार की सृष्टि हुई है ? क्या किसी ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया? ऋग्वेद के अनुसार क्या वास्तव में ईश्वर ने ही सृष्टि को बनाया या किसी और ने सृष्टि का निर्माण किया ? क्या ईश्वर ने सृष्टि को नहीं बनाया तो आखिर सृष्टि की रचना किसने की? सृष्टि की रचना क्या अपने-आप हो गई? क्या किसी ने भी सृष्टि का निर्माण नहीं किया ? ऋग्वेद के अनुसार सृष्टि की रचना का रहस्य क्या है?
क्या उस ईश्वर को कोई जानता है? क्या किसी ने उस एक ईश्वर को देखा है? अगर इस सृष्टि का रचयिता कोई ईश्वर ही है तो उसने किस वजह से इसे बनाया? अगर इस सृष्टि का रचयिता ईश्वर ही है तो इस सृष्टि को को किसके लिए बनाया? सृष्टि का रचना का उद्देश्य क्या था? पवित्र कुरान और पवित्र बाइबल में कहा गया है कि इस संसार की रचना ईश्वर ने मनुष्यों के लिए की,लेकिन ऋग्वेद का नासदीय सूक्त ऐसा कुछ नहीं कहता ?
ईश्वर ने सृष्टि की रचना नहीं की ?
अगर सृष्टि की रचना ईश्वर ने नहीं की तो आखिर इस सृष्टि को किसने बनाया? अगर सृष्टि की रचना ईश्वर ने ही की है, तो क्या वो इसकी रचना की वजह हमें बता सकता है ? क्या ईश्वर को भी सृष्टि की रचना की वजह मालूम है या उसे भी नहीं पता कि उसने ही सृष्टि की रचना की है?
मानव जाति के इतिहास में सृष्टि की रचना के उद्देश्य को लेकर नासदीय सूक्त सबसे पुरानी और सबसे उँची दार्शनिक व्याख्या है, जिसमें निषेधात्मकता के भाव से सृष्टि की रचना का कारण, उसके उद्देश्य और उसके रचयिता की खोज की गई है।
सृष्टि की रचना के पहले क्या था?
नसदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्।
किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥१॥
व्याख्याः – सृष्टि के पहले (पूर्व) असत् (असत् न आसीत्) नहीं था (Nothing were unmenifested), अर्थात् कुछ भी प्रगट नहीं था। कुछ भी होने का भाव भी नहीं था, किसी के होने की कल्पना भी नहीं थी, सब कुछ अव्यक्त था, संभवतः कुछ निराकार भी नहीं था।
सृष्टि के पहले सत्(नो सत् आसीत्) भी नहीं था अर्थात् कुछ व्यक्त भी नहीं था (Nothing were menifested), प्रगट रुप से भी कुछ नहीं था, किसी तरह के अस्तित्व का अहसास नहीं था, कोई आकारयुक्त चीज या साकार सत्ता भी नहीं थी।व्यक्त और अव्यक्त का कुछ भी पता नहीं चलता था।
(रजः न आसीत्) न ही कोई एक लोक या कई प्रकार के लोकों के अस्तित्व का पता था। यास्क रचित ग्रंथ ‘निरुक्त’ (4-19) के अनुसार ” लोका रजान्स्युच्यन्ते ” में लोकों के लिए ‘रज’ शब्द आया है)।
- (व्योम नो) आकाश या अंतरिक्ष का भी कोई पता नहीं था और (परः यत्) आकाश या अंतरिक्ष से परे भी यदि कुछ हो सकता है, तो उसका भी ज्ञान नहीं था। ये भी नहीं मालूम था कि वो है भी कि नहीं है ?
- (कुह कस्य शर्मन् किम् आवरीवः) किस स्थान पर किसके कल्याण के लिए कौन किसका आवरण करे, इसलिए वह आवरण भी नहीं था। सब कुछ सीमाहीन था।
- सीमाएं या फिर कोई पदार्थ जिससे कोई स्थान या वस्तु घिरी हुई हो, जिससे उस स्थान या वस्तु के आकार के तय होने का आभास हो, क्या ऐसा कोई आवरण था?
- क्या कोई ऐसा तत्त्व या पदार्थ था जो सबको चारों तरफ से घेर सकता था, वह पदार्थ या तत्त्व या दिशाएं जो किसी वस्तु या स्थान को चारों तरफ से घेर सकती थी, वो नहीं थी ? अगर जो कुछ था भी तो वो किससे घिरा हुआ था, किसके आश्रय में था?
- (किम् गहनम् गभीरम अम्भः आसीत) क्या कोई ऐसा भासमान सत्ता या कोई अस्तित्व था (तत्व जैसा कुछ) जिसका भास या अहसास स्पर्श, गंध, दृष्टि के द्वारा किया जा सके?
सृष्टि का रचयिता कौन है?
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥२॥
- सृष्टि से पूर्व (न मृत्यु आसीत्) न तो मृत्यु थी और ( न तर्हि अमृतम्) न ही अमरता रुपी अमृत का ज्ञान था। ( न रात्र्या अह्नः) न रात्रि थी और न ही दिन का (प्रकेत आसीत्) कोई चिन्ह था।
- (अवातम् तत् एकम् स्वधया आनीत् ) वायुरहित ‘वह एक’ अपनी निज सत्ता के साथ विद्यमान था। (तस्मात् ह अन्यत् किंचन न) ‘उस एक’ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था।
- स्वधा’ शब्द बहुत उपयुक्त है। क्योंकि स्व = निज सत्ता । जो निज सत्ता को धा = धारण किये हुये विद्यमान हो , उसे ‘स्वधा’ कहते हैं । “स्वं दधातीति स्वधा”- जो अपने को धारण करती है , उसे स्वधा कहते हैं ।
- प्रथम ऋचा और दूसरी ऋचा के प्रथम श्लोक में सारे अस्तित्व का निषेध किया गया है। कहा गया है कि न तो सत् था , न असत् था, न आकाश था और न मृत्यु थी, न अमृत था और न रात्रि थी और न ही दिन था।
लेकिन इस ऋचा की दूसरी पंक्ति में पहली बार कहा गया है कि ‘कोई’ था, जो अपनी निज सत्ता (स्वधया) के साथ विद्यमान था। नकारात्मकता में सकारात्मकता की यह अद्भुत उंचाई है।
नकारात्मकता या निषेधात्मकता वेद के दर्शन का मूल है । सारे शास्त्रों ने ईश्वर के स्वरुप को खोजने की कोशिश की है । लेकिन कोई ईश्वर के मूल स्वरुप को पा नहीं सका। इन शास्त्रों के रचयिता ने ईश्वर को ‘नेति- नेति’ ( यह नहीं यह भी नहीं) कह कर खोजने की चेष्टा की है। ‘न'(This is not that) से ही ईश्वर को ढूंढ निकालने का प्रयास किया गया है।
संशय वेदों की आत्मा है, प्रश्न पूछना और संशय प्रगट करना वेदों में अक्सर दिखाई पड़ता है। ‘कस्मै देवाय हविषा विधेम’ वाक्य के द्वारा बार बार संशय किया गया है , प्रश्न पूछा गया है कि हम किस देवता को अपना हविष्य या पूजन समर्पित करें? ऋग्वैदिक आर्य कभी इंद्र को सर्वश्रेष्ठ देवता मानते हैं तो कभी वरुण को सबसे प्रथम देवता मान कर उन्हें अपनी पूजा समर्पित करते हैं। कभी अग्नि देव उनके लिए प्रथ्म पूज्य हैं तो कभी रुद्र को वो हविष्य ग्रहण करने के लिए पुकारते हैं। ऋ्गवैदिक आर्य लगातार अपने संशय और प्रश्नों को खड़ा करते हैं और ईश्वर के वास्तविक खोज में लगे रहते हैं।
सृष्टि का रचयिता कहां छिपा था?
तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥३॥
व्याख्या- लेकिन वह अपनी निज सत्ता(स्वधया ) के साथ कहां था? कहा गया है (अग्रे तम आसीत्) कि आगे ‘तम'(Infinite darkness) था और (तमसा गूढ़म) वह ‘तम’ (Infinite darkness) बहुत गूढ़(अबूझ) था।
गूढ़ का अर्थ होता है जिसे ठीक से समझा न जा सके , जिसके होने या न होने को लेकर संशय की स्थिति हो। जिसके अंदर कुछ होने या न होने के बारे में ठीक-ठीक कुछ पक्के तौर पर कहा न जा सके, वो गूढ़ है, रहस्यमय है । इस प्रकार उस ‘तम'(Infinite darkness) में क्या था ये निश्चित रुप से कुछ कहा नहीं जा सकता था। आगे कहा गया कि उस ‘तम'(Infinite darkness) में सब कुछ अस्पष्ट( अप्रकेतम्) था।
- ‘तम'(Infinite darkness) की वजह से कुछ भी जानना पाना पूरी तरह से संभव नहीं था कि वास्तव में सृष्टि के पूर्व क्या था ? किसी का भी कुछ ज्ञान नहीं होता था क्योंकि चारों तरफ तम ही तम था।
- ‘तम'(Infinite darkness) शब्द वेदान्त में अज्ञान( अविवेक) के लिए आया है। सिर्फ अंधकार के लिए नहीं। अंधकार शब्द प्रकाश का विपरीत या विलोम शब्द है। प्रकाश में वाह्य वस्तु को देखा जा सकता है और प्रकाश के न होने पर वह वस्तु नजर नहीं आती । प्रकाश और अंधकार सांसारिक गतिविधियां हैं।
- ‘तम’ शब्द(Infinite darkness) अंधकार से भी गहरा है(Even darker than darkness) । हमारी बुद्धि और चेतना को भी जब कुछ नज़र नहीं आता है तो हम उसे तम(Infinite darkness) या अविवेक( अज्ञान) से घिरा हुआ कहते हैं। तम(Infinite darkness) शब्द अंतर्जगत के लिए भी आता है। तम(Infinite darkness) अंधकार से बहुत व्यापक और गूढ़ अर्थ रखता है।
- (सर्वमा इदं)- उस तम मे वह एक अपनी ( तुच्छ्येन ) तुच्छता या सूक्ष्मता के साथ अर्थात अव्यक्तावस्था के साथ (अपिहितम् + आसीत् ) आच्छादित था । अर्थात उस तम (Infinite darkness) में ‘वह एक’ मौजूद था। लेकिन कैसे? तो कहा गया है कि (सलिल आ) जैसे दूध में पानी घुला हुआ होता है, वैसे ही ‘वह एक'(That one) ‘तम'(Infinite darkness) के अंदर घुला हुआ था, मिला हुआ था।
- ( तत् ) वही (स्वधा) निज सत्ता को धारण कर ( एकम् ) एक होकर (तपसः + महिना ) तप की महिमा से ( अजायत ) व्यक्त अवस्था को प्राप्त हुआ।
- ‘तप’ क्या है ? सृष्टि रचना की इच्छा ही ‘तप’ कहलाती है। उसी ‘तप’ की इच्छा से वह अव्यक्त (तुच्छ रुप) ‘तम'(Infinite darkness) में ही अलग अस्तित्त्व धारण कर व्यक्त हो जाता है, साकार हो जाता है ।
- यहां ‘स्वधा’ शब्द का प्रयोग निज सत्ता को धारण करने वाले लिए हुआ है। ‘निज सत्ता’ क्या है? ‘निज सत्ता’ अर्थ है- ‘अपने होने का बोध’। जैसे आप नींद में रहते हैं तो आप मृत व्यक्ति के समान हो जाते हैं। आपकी चेतना सुप्त हो जाती है। लेकिन आपके अंदर कोई ऐसी सत्ता होती है, जिसे पुकारने पर आप नींद से जाग जाते हैं। उस ‘निज सत्ता’ को जन्म के साथ कोई नाम दे दिया जाता है, जिससे आप खुद को संयुक्त कर लेते हैं। जैसे ही कोई आपका नाम पुकारता है आपके अंदर की चेतना आपको नींद से जगा देती है।
यहां कहा गया है कि ‘वह एक’ भले ही तम(Infinite darkness) में दूध मिश्रित जल के समान घुला हुआ था, लेकिन ‘उसे’ अपने होने का बोध था। ‘वही एक’ अपने होने के बोध के साथ सृष्टि की इच्छा(तप) करता है ।
अभी सृष्टि बनी नहीं है, उसके लिए प्रयत्न भी नहीं हुआ है, लेकिन सृष्टि निर्माण की इच्छा का जन्म होते ही ‘वह एक’ साकार हो जाता है। यह तप(Infinite darkness) अर्थात सृष्टि की इच्छा की महिमा है कि वह व्यक्त हो जाता है।
ईश्वर की कामना से सृष्टि का निर्माण हुआ
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥४॥
- (तदग्रे )उस सृष्टि के पूर्व ( कामः + समवर्त्तत ) वह ‘कामना'(Will of the almighty) या इच्छा ही थी, जिसने ‘उस एक’ में सृष्टि की इच्छा( तप) के लिए प्रेरणा उत्पन्न की।
- उसके ( मनसः + अधि ) अन्तःकरण की ( यत् ) वह कामना या इच्छा(Will of the almighty) ही सृष्टि के निर्माण का ( प्रथमम् + रेतः ) प्रथम या प्रारंभिक बीज था । उसके बाद तप अर्थात सृष्टि निर्माण की इच्छा हुई।
- जो लोग ईश्वर को कामनारहित कहते हैं , वे वास्तव में इस श्लोक के तात्पर्य को नहीं समझते ,क्योंकि तैत्तरीय उपनिषद् (२-६ ) में कहा गया है कि ‘सोsकामयत’ अर्थात् ‘उसने’ कामना की।
- छांदोग्य उपनिषद् ( ६-२-१ ) में भी कहा गया है ‘तदैक्षत’ अर्थात् उसने ईक्षण(इच्छा) किया। श्रुतिवाक्यों से ब्रह्म में ‘काम’ या इच्छा का सद्भाव प्रसिद्ध है । यदि काम(इच्छा) न होता तो यह सृष्टि भी नहीं होती ।
हृदय में सृष्टि की रचना का रहस्य छिपा है
( कवयः ) ऋषि और मुनिगण अपने ( मनीषा )चैतन्य बुद्धि से( असति ) विनश्वर अर्थात नाशवान ( हृदि + प्रतीष्य ) हृदय में विचार (सतः + बन्धुम् ) कर ‘उस एक’ अविनश्वर(नाशरहित) को (निरविन्दन् ) पाते हैं।
जो समस्त ब्रह्मांड में है वही हमारे अंदर भी बीज रुप में है, क्योंकि ब्रह्मांड के तत्त्वों से ही हम सभी का निर्माण हुआ है। जो अणु और परमाणु सारी सृष्टि के मूल भूत तत्त्व हैं, वही हमारे शरीर का भी निर्माण करते हैं।
इस ऋचा में कहा गया है कि ऋषिगण अपनी चैतन्य बुद्धि से अपने ह्रदय में ‘उस एक’ के मूल भाव रुपी इच्छा(कामना) का दर्शन कर उसे प्राप्त कर लेते हैं। ‘उस एक’ की इच्छा(कामना) को इस ऋचा में ‘सतो- बंधुम’ अर्थात सत्(Manifested one) को बांधने वाला कहा गया है।
‘उस एक’ का सत् अर्थात प्रगट या व्यक्त होना ही सृष्टि का आरंभ है, और उस सृष्टि के आंरभ का कारण है ‘उस एक’ की इच्छा या कामना। अपनी इच्छा या कामना से ही वह इस जगत को प्रगट करता है। लेकिन वह कामना या इच्छा उस एक के वश में रहती है। इस बात को ऋषि मुनि गण अपने इस नाशवान हृदय में प्राप्त करते हैं।
हमारा हृदय भी इच्छाओं या कामनाओं को अपने वश में बाँधे रखता है। इन्हीं इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए जब हम कोई प्रयास करते हैं तो किसी वस्तु का निर्माण होता हैं। यानी जो परमात्मा समष्टि रुप में अपनी इच्छा के जरिए सृष्टि का निर्माण करता है, वही लघु रुप में हमअपने जीवन की इच्छाओं को साकार रुप देकर करते हैं।
ईश्वर सबसे उपर है
तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी३दुपरि स्विदासी३त्।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥५॥
(ऐषाम्) ‘इनका’ अर्थात रेतस्(बीज रुप मूल इच्छा या कामना ), तप( सृष्टि निर्माण रुपी विशेष इच्छा ) और सत्( प्रगट या व्यक्त होने वाली सृष्टि) का विस्तार (स्वितः) क्या किरणों ( रश्मि) की तरह था? क्या ये नीचे की तरफ विस्तृत थे? (अधः स्वित आसीत्), क्या इनका विस्तार उपर की तरफ था( उपरिस्वित्)? या फिर ये टेढ़े -मेढ़े ढंग( तिरश्चीनः) फैले हुए थे?
सबसे उपर तो ‘वह एक’ ही था, इसके बाद (रेतः धाः आसन्) उसका रेतस्( मूल इच्छा या कामना रुपी बीज) था (महिमानः आसन्) जो महान सामर्थ्य वाला था। इसके पश्चात तप( सृष्टि निर्माण की विशेष इच्छा ) थी। उसके बाद उसका प्रयत्न था(परस्तात् प्रयतिः) और अंत में उसकी विस्तृत होने वाली निज सत्ता( स्वधा) थी जो सत् ( व्यक्त या प्रगट या साकार) में परिवर्तित होने वाली थी।
अर्थात ‘वह एक’ अपनी मूल इच्छा( रेतस) को सृष्टि निर्माण की इच्छा ( तप ) में परिवर्तित कर, अपने प्रयत्नों के द्वारा जिस निज सत्ता को उसने धारण किया था( स्वधया) उसका विस्तार कर सृष्टि निर्माण करने वाला था। अर्थात यह वर्तमानकालिक सृष्टि उसके द्वारा धारण किये हुए निज सत्ता( स्वधया) का ही प्रगट रुप( सत्) है।
सृष्टि की रचना कैसे हुई ये कौन जानता है?
को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥६॥
अर्थः- (इयम विसृष्टिः) ये विविध सृष्टियां ( कुतः आ जाता) किस प्रकार से हुई? ( कुतः) और किस कारण से हुईं? (अद्धा कः वेद) कौन इसे जान सकता है? और ((इह कः प्रवोचत्) यहां कौन इसकी व्याख्या कर सकता है? (अस्य) इस जगत के ( विसर्जनेन) सृजन के (अर्वाक) पश्चात ही तो (देवाः) देवगण उत्पन्न हुए हैं? तो इसमे भी संदेह ही है कि देवगणों को भी पता होगा कि ये विविध सृष्टियां किस प्रकार से हुईं, किस कारण से हुईं ? ( अथ ) तब ( कः + वेद ) आखिर कौन जानता है ( यतः + आबभूव ) किस उद्देश्य या कारण से ये सृष्टियाँ हुई |
क्या ईश्वर ने ही सृष्टि की रचना की ?
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ॥७॥
व्याख्याः-(यतः) ‘जिस एक’ से (इयम विसृष्टिः) ये विविध सृष्टियां ( आबभूव) हुआ करती हैं, (यदि वा दधे) यदि ‘वही एक’ इसको धारण करता है, (यदि वा न )या ‘वह एक’ भी उसको धारण नहीं करता तो( यः अस्य अध्यक्ष) क्या अन्य इसका अन्य कोई अध्यक्ष (स्वामी, निर्माता) है, या (सः परमे व्योमेन) फिर ‘वह एक’ जो अंतरिक्ष में विद्यमान है,( सः अंग वेद) वह सब कुछ जानता है? ( यदि + वा + न + वेद ) यदि वह भी नहीं जानता तो फिर दूसरा इसको कोई नहीं जानता |