श्रीराम की मृत्यु कैसे हुई? How Rama Died?

संसार में हरेक प्राणी जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु निश्चित है। ईश्वर को छोड़कर संसार के सभी जड़ और चेतन नाशवान हैं। सिर्फ ईश्वर अमर हैं। तो प्रश्न उठता है कि श्रीराम तो ईश्वर के अवतार थे तो फिर क्या उनकी भी मृत्यु हुई थी या फिर वो आज भी अमर हैं?

सनातन धर्म में नारायण को ईश्वर का सर्वोच्च स्वरुप माना गया है और वो आदि, अनंत और अमर हैं। सनातन धर्म में नारायण के दो प्रमुख अवतारों श्रीराम और श्रीकृष्ण की पूजा सारे संसार में की जाती है। विष्णु ने श्रीराम के रुप में त्रेता युग में अवतार लिया था जबकि विष्णु ने श्रीकृष्ण के रुप में द्वापर युग में जन्म लिया था।

आज श्रीराम और श्रीकृष्ण शरीर के रुप में इस संसार में मौजूद नहीं हैं लेकिन चेतना और ऊर्जा के रुप में वो अजर और अमर हैं। तो क्या श्रीराम और श्रीकृष्ण की भी मृत्यु हुई थी?

सनातन धर्म के सिद्धांतों के अनुसार जब ईश्वर अवतार लेते हैं तो वो किसी मनुष्य या किसी अन्य प्राणी  रुप में अवतार लेते हैं और अपनी लीला समाप्त कर इस संसार को त्याग कर चले जाते हैं। श्रीराम और श्रीकृष्ण ने भी अपनी लीला समाप्ति के बाद इस संसार का त्याग कर दिया।

श्रीराम की मृत्यु की कथा

वाल्मीकि रामायण में श्रीराम के द्वारा पृथ्वी लोक से वैकुँठ लोक जाने की कथा मिलती है। वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में श्रीराम के आखिरी दिनों का वर्णन मिलता है। जब श्रीराम ने अयोध्या सहित पूरी पृथ्वी पर राम राज्य की स्थापना कर दी और इस धरा पर उनके अवतार के 11000 वर्ष बीत गए तब उन्होंने वैकुंठ में प्रवेश किया था ।

वाल्मीकि रामायण की कथा के अनुसार जब श्रीराम के इस धरा पर 11000 वर्ष पूरे हो गए तो भगवान ब्रह्मा ने काल देवता को बुलाया और उन्हें श्रीराम के पास संदेश देने के लिए भेजा। कालदेवता एक तपस्वी का रुप धारण कर श्रीराम के महल के दरवाजे पर आये और उन्होंने द्वारपाल को श्रीराम को सूचित करने के लिए कहा।

श्रीराम और काल देवता की मुलाकात

श्रीराम ने तपस्वी भेष में आये काल देवता को अपने महल में बुलाया । कालदेवता ने कहा कि “मैं आपके पास एक संदेश लेकर आया हूँ। लेकिन यह संदेश मैं आपको एकांत में सुनाना चाहता हूँ।“

इसके अलावा कालदेवता ने श्रीराम से कहा कि “आप ये वचन दें कि  अगर कोई हमारे एकांत वार्तालाप में विघ्न डालेगा तो आप उसे प्राणदंड देंगे।“ श्रीराम ने कालदेवता को ये वचन दे दिया और लक्ष्मण को कहा कि “कोई भी महल के अंदर आने न पाए । अगर कोई भी महल के अंदर प्रवेश करेगा तो उसे मैं मृत्युदंड दे दूंगा।“

लक्ष्मण ने श्रीराम का आज्ञा का पालन करने के लिए स्वयं को उस महल के द्वारपाल के रुप में तैनात कर लिया। तब कालदेवता ने श्रीराम को अपना परिचय दिया और कहा कि “मैं कालदेवता हूँ और आपके पास मुझे ब्रह्मा ने भेजा है”

कालदेवता ने आगे कहा कि “ ब्रह्मा जी ने कहा कि आप विष्णु के अवतार हैं और आपने ही अपने लिए पृथ्वी पर 11000 वर्षों का समय निश्चित किया था। अब आपका समय पूरा हो गया है , अगर आप वापस अपने वैकुंठ लोक लौटना चाहते हैं तो हम सब आपका स्वागत करने के लिए तैयार हैं।“

श्रीराम ने कालदेवता को कहा कि “पृथ्वी लोक पर मेरा समय पूरा हो गया है और अब मैं जल्दी ही अपने वैकुंठ लोक लौट कर विष्णु स्वरुप के रुप में स्थापित हो जाउँगा। मैं खुद चाहता था कि अब मैं इस पृथ्वी लोक को छोड़कर अपने लोक वापस लौट जाउँ। मेरा सारा कार्य पूरा हो चुका है।“

लक्ष्मण के पास दुर्वासा मुनि का आगमन

जब श्रीराम और कालदेवता आपस में वार्तालाप कर ही रहे थे कि उसी वक्त दुर्वासा मुनि श्रीराम से मिलने के लिए उनके महल के दरवाजे पर खड़े हो गए। दुर्वासा मुनि ने द्वार पर खड़े लक्ष्मण जी को कहा कि “मेरा संदेश श्रीराम को दे दो , मैं उनसे मिलने के लिए आया हूँ। श्रीराम से मेरा मिलना जरुरी है।“

लक्ष्मण जी ने दुर्वासा मुनि को कहा कि “अभी श्रीराम किसी जरुरी कार्य में संलग्न हैं आप मुझे आदेश दें, मैं आपके सारे कार्य पूरे करुंगा।“ अपने क्रोध के लिए विख्यात दुर्वासा मुनि लक्ष्मण जी की इस बात को सुन कर क्रोधित हो गए और तुरंत शाप देने के लिए तैयार हो गए।

दुर्वासा मुनि ने कहा कि “अगर तुरंत श्रीराम मुझसे मिलने के लिए तैयार नहीं होंगे तो मैं समूची अयोध्या नगरी को अपने क्रोध से भष्म कर दूँगा । यहाँ के सारे नागरिक मेरे शाप की वजह से मारे जाएंगे।“

लक्ष्मण जी दुर्वासा के इस क्रोध को देखकर चिंता में पड़ गये । उन्हें लगा कि दुर्वासा के शाप से पूरी अयोध्या का नाश हो जाएगा , इससे बेहतर हैं कि वो ही श्रीराम के पास जाएं और उन्हें दुर्वासा के आने का समाचार दें। इसकी वजह से सिर्फ उन्हें ही प्राणदंड मिलेगा लेकिन अयोध्या की सारी जनता मौत से बच जाएगी।

लक्ष्मण को श्रीराम के द्वारा प्राणदंड

दुर्वासा मुनि के क्रोध को शांत करने के लिए लक्ष्मण जी श्रीराम के महल में प्रवेश कर गए। वहाँ श्रीराम और कालदेवता आपस में वार्तालाप कर रहे थे। लक्ष्मण ने श्रीराम को दुर्वासा के आगमन की सूचना दी।

श्रीराम ने दुर्वासा मुनि को अपने महल में आने के लिए निमंत्रण दिया और उनका खूब सत्कार किया। दुर्वासा मुनि ने श्रीराम के समक्ष भोजन की करने की इच्छा प्रगट की । श्रीराम ने दुर्वासा मुनि को भोजन कराया और  दुर्वासा मुनि श्रीराम के सत्कार के प्रसन्न होकर चले गए।

अब श्रीराम इस चिंता में पड़ गए कि उनकी प्रतिज्ञा की वजह से उन्हें लक्ष्मण को प्राणदंड देना पड़ेगा। श्रीराम दुःखित हो गए और उन्होंने इस विषय पर राजसभा के मंत्रियों और अपने गुरुओं को बुलाया ।

श्रीराम ने अपने मंत्रियों और गुरुओं को सूचना दी कि वो अब वैकुँठ जाने वाले हैं, लेकिन उसके पहले उन्हें लक्ष्मण को मृत्युदंड देना पड़ेगा। वसिष्ठ आदि ऋषियों ने श्रीराम को उस प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए कहा । वसिष्ठ ने कहा कि “जिस धर्म की स्थापना आपने की है उस धर्म का पालन आपको अपने शरीर छोड़ने से पहले भी करना चाहिए।“

श्रीराम ने लक्ष्मण को प्राणदंड दे दिया। लक्ष्मण ने अपने भाई श्रीराम की आज्ञा का पालन किया और सरयू के तट पर चले गए। उन्होंने खुद को योगयुक्त कर समाधिस्थ कर लिया । जब लक्ष्मण समाधि में थे तो इंद्र देवता उनके पास आए और उन्हें अपने साथ स्वर्ग ले गए।

श्रीराम का वैकुँठ लोक जाना

अब श्रीराम ने पृथ्वी लोक का त्याग करने का निश्चय किया । उन्होंने अपने भाई भरत को बुलाकर कहा कि “अयोध्या के राजा के पद पर तुम स्थापित हो जाओ। भरत ने कहा कि मैं भी आपके साथ ही वैकुँठ जाउंगा ।“ इसके बाद श्रीराम ने अपने पुत्रों लव और कुश के बीच अयोध्या के राज्य का बंटवारा कर दिया।

श्रीराम के वैकुँठ जाने की प्रतिज्ञा को सुनकर मथुरा नगरी से शत्रुघ्न आए और उन्होंने भी श्रीराम के साथ वैकुँठ जाने की घोषणा कर दी। इसके बाद ये समाचार सुन कर लंका से राक्षसों सहित विभीषण और किष्किंधा से वानरों सहित सुग्रीव भी अयोध्या आए।

वानरराज सुग्रीव ने भी श्रीराम से अनुरोध किया कि वो भी उनके साथ ही वैकुँठ जाना चाहते हैं। श्रीराम ने उनके इस अनुरोध को स्वीकार कर लिया। लेकिन श्रीराम ने हनुमान जी को चिरंजीवी होने का वरदान पहले ही दे दिया था। इसलिए उन्होंने हनुमान को पृथ्वी लोक पर ही रहने की आज्ञा दी।

 हनुमान के अलावा जाम्बवंत , द्वैद और मयंद को उन्होंने चिंरंजीवी होने का आशीर्वाद दिया। श्रीराम ने विभीषण को भी पृथ्वी पर शासन करने का आदेश दिया और उन्हें भी चिरंजीवी होने का वरदान दिया।

श्रीराम के साथ अयोध्या की प्रजा का शरीर त्याग

श्रीराम के वैकुँठ जाने के निर्णय की  सूचना सुन कर अयोध्या की पूरी जनता श्रीराम के महल के सामने आकर खड़ी हो गई। अयोध्या की प्रजा ने भी श्रीराम से अनुरोध किया कि वो भी अब पृथ्वी लोक मे  नहीं रहना चाहते हैं और सभी श्रीराम के जाने के बाद मृत्यु का वरण करेंगे।

श्रीराम का गोप्रतार घाट जाना

श्रीराम वैकुँठ जाने के लिए अयोध्या के निकट बहने वाली सरयू नदी की तरफ बढ़ चले। उनके एक हाथ मे कुशा थी और दूसरे हाथ में कलम का फूल था। उने पार्श्व में श्रीदेवी और भूदेवी चल रही थीं।

श्रीराम के पीछे- पीछे अयोध्या की पूरी प्रजा , लंका के कई राक्षस , किष्किंधा से आए कई वानर , अयोध्या में रहने वाले सारे पशु- पक्षी, दृश्य और अदृश्य जंतु भी चल रहे थे।

श्रीराम की आगवानी के लिए ब्रह्मा सहित सारे देवी देवता सरयू के तट पर आ चुके थे। श्रीराम ने जैसे ही सरयू नदी में प्रवेश किया,ब्रह्मा ने उनसे प्रश्न किया कि” वो अपने किस स्वरुप में अपने वैकुंठ लोक में जाना चाहते हैं?”

 ब्रह्मा ने कहा कि “क्या आप अपने इसी शरीर के साथ वैकुंठ लोक में जाना चाहते हैं या फिर आप अपने विष्णु स्वरुप के साथ वैकुंठ जाना चाहते हैं या फिर निराकार रुप में जाना चाहते हैं।“

श्रीराम ने सरयू में प्रवेश करते ही उनके समक्ष उनका वैष्णव तेज प्रगट हो गया और उस तेज में श्रीराम अपने शरीर के साथ ही प्रवेश कर गए। इसी वैष्णव तेज में भरत और शत्रुघ्न ने भी सशरीर प्रवेश कर लिया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि श्रीराम के अलावा भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न भी विष्णु के ही अँशावतार थे।

श्रीराम ने जैसे ही वैकुँठ में अपने स्वरुप के साथ प्रवेश किया उन्होंने ब्रह्मा जी को कहा कि “मेरे साथ अयोध्या की जनता, पशु , पक्षी, कई राक्षस और वानर भी शरीर त्याग करना चाहते थे,इसलिए आप उन्हें भी किसी लोक में प्रवेश दें।“

ब्रह्मा ने श्रीराम के आदेश का पालन करते हुए अयोध्या की पूरी प्रजा , पशु- पक्षी, वानरों और राक्षसों को संतानक लोक में प्रवेश दिया। यह लोक वैकुंठ और ब्रह्लोक के ठीक बीच में है। श्रीराम की कृपा और करुणा से अयोध्या की सारी प्रजा, पशु, पक्षी, राक्षसों और वानरों को भी मुक्ति मिल गई।

इस कथा से हमें पता चलता है कि श्रीराम की मृत्यु नहीं हुई थी और न ही उन्होंने अपने शरीर का त्याग किया था। दरअसल श्रीराम अपने शरीर के साथ ही अपने वैष्णव तेज में प्रवेश कर गए थे और श्रीराम से विष्णु के स्वरुप में परिवर्तित हो गए थे।

विश्व में सनातन धर्म ही इकलौता ऐसा धर्म है जो सिर्फ मानवों के लिए नहीं बना है , बल्कि इस धर्म में पशु-पक्षी भी कल्याण के भागी हैं। सनातन धर्म में ही पशु और पक्षियों को भी स्वर्ग और मुक्ति मिल सकती हैं ।

इस्लाम में सिर्फ इंसानों और उसमें भी सिर्फ मुसलमानों को ही जन्नत मिल सकता है। ईसाइयत में सिर्फ ईसाई इंसानों को ही परमेश्वर के राज्य में प्रवेश मिल सकता है लेकिन सनातन धर्म के लिए सबसे द्वार खुले हुए हैं।

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